अस्थिरता के दौर में दक्षिण एशियाई देश

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बहाल करना होगा, क्योंकि सोशल मीडिया पर बैन जैसे कठोर कदम लोकतंत्र को कमजोर करते हैं। साथ ही, विदेश नीति में संतुलन साधना अनिवार्य है, ताकि भारत, चीन और अमेरिका की प्रतिस्पर्धा के बीच नेपाल अपनी संप्रभुता सुरक्षित रख सके…
पिछले तीन वर्षों से दक्षिण एशिया के तीन देश राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता की गिरफ्त से गुजरे हैं। श्रीलंका आर्थिक संकट से जूझकर सत्ता पलट का गवाह बना, बांग्लादेश में विपक्ष के दमन और सरकारी नौकरियों में आरक्षण में अनियमितताओं के खिलाफ छात्रों के विरोध प्रदर्शन से सत्ता परिवर्तन हुआ तो वहीं अब नेपाल में राजनीतिक नेतृत्व की अपरिपक्वता एवं आमजन की भावनाओं और अपेक्षाओं के विपरीत फैसले लेने से नेपाल में सडक़ों पर आए युवा आंदोलन से सत्ता परिवर्तन हुआ है। नेपाल में प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों तक को आग के हवाले करने से संकोच नहीं किया और कई मंत्रियों को उनके घरों से खींचकर सडक़ों पर अपमानित किया गया। अब तक 51 से अधिक लोगों की मौत और सैकड़ों के घायल होने की पुष्टि हो चुकी है। इन सत्ता पलट आंदोलनों से तीनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भी तगड़ा झटका लगा है। नेपाल में आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इसका नेतृत्व किसी राजनीतिक दल ने नहीं, बल्कि सोशल मीडिया से पली-बढ़ी नई पीढ़ी, ‘जेनरेशन जेड’ ने किया।
इसकी शुरुआत तब हुई जब सरकार ने अचानक फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और वॉट्सऐप सहित 26 प्लेटफॉर्मों पर प्रतिबंध लगा दिया। तर्क यह दिया गया कि अफवाहें और फर्जी अकाउंट सामाजिक शांति को बिगाड़ रहे हैं, पर युवाओं ने इसे अपनी आवाज दबाने का प्रयास माना। जिस पीढ़ी के लिए डिजिटल अभिव्यक्ति जीवन का अभिन्न हिस्सा है, उसने इसे बर्दाश्त नहीं किया और गुस्सा सडक़ों पर फूट पड़ा। हालांकि वास्तव में लंबे समय से नेपाल में नेताओं और अफसरशाही के परिवारों की आलीशान जीवनशैली सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय रहती आई है। उनकी महंगी गाडिय़ां, विदेशों में शिक्षा और ऐशो आराम की जि़ंदगी देश के युवाओं को खटकती रही है। जहां बेरोजगारी की दर 20 प्रतिशत से अधिक हो और लाखों युवा रोजगार की तलाश में यहां-वहां ठोकरें खाने को विवश हों, ऐसे में अवसरहीनता और भ्रष्टाचार के बीच जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी छीन ली गई तो विद्रोह होना स्वाभाविक ही था। जनदबाव के चलते सरकार को झुकना पड़ा और गृह मंत्री व संचार मंत्री ने इस्तीफा दे दिया और प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली नेपाल छोड़ दुबई भाग गए। नेपाल का इतिहास बताता है कि यहां लोकतंत्र आंदोलनों और विद्रोहों से ही मजबूत हुआ है, 1990 का बहुदलीय आंदोलन, 2006 में राजशाही का अंत और अब यह नया युवा आंदोलन। 2015 में अपनाया गया नेपाल का संविधान, देश को सात प्रांतों में विभाजित एक धर्मनिरपेक्ष संघीय संसदीय गणराज्य के रूप में स्थापित करता है। नेपाल 1955 में संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बना। नेपाल की राजनीतिक बेचैनी केवल आंतरिक नहीं है। उसकी भौगोलिक स्थिति उसे भारत और चीन के बीच संवेदनशील मोर्चा बना देती है। चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव और अमेरिका की मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन जैसी परियोजनाओं ने उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का केंद्र बना दिया है। ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है कि सोशल मीडिया पर प्रतिबंध और उसके खिलाफ आंदोलन महज स्वत: स्फूर्त प्रतिक्रिया थे या कहीं बाहरी शक्तियां भी सक्रिय थीं? इस उथल-पुथल के बीच नेपाल ने नई राह तलाशने का प्रयास किया और 14 सितंबर 2025 को देश की पहली महिला न्यायाधीश एवं पहली अंतरिम प्रधानमंत्री सुशीला कार्की ने पदभार ग्रहण करते हुए घोषणा की कि वे युवाओं की आकांक्षाओं के अनुरूप भ्रष्टाचार समाप्त करने और सुशासन स्थापित करने की दिशा में काम करेंगी।
73 वर्षीय पूर्व मुख्य न्यायाधीश कार्की को संसद भंग होने के बाद छह माह के लिए व्यवस्था संभालने का दायित्व दिया गया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह सरकार 5 मार्च 2026 तक ही रहेगी और चुनावों के बाद सत्ता निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंप दी जाएगी। कार्की ने स्वीकार किया कि, ‘हमें जेनरेशन-जेड की सोच के अनुसार काम करना होगा, जिनकी प्रमुख मांग भ्रष्टाचार का अंत, आर्थिक समानता और पारदर्शी शासन है।’ राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने इस नियुक्ति को जटिल लेकिन शांतिपूर्ण समाधान बताया, जबकि भारत, चीन और अन्य पड़ोसी देशों ने नेपाल की स्थिरता के लिए शुभकामनाएं दी हैं। भारत के लिए यह स्थिति विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते भारत अपने पड़ोसियों की अस्थिरता से अलग नहीं रह सकता है। श्रीलंका के संकट में भारत को मानवीय सहायता और कूटनीतिक संतुलन साधना पड़ा था। बांग्लादेश की अस्थिरता ने पूर्वोत्तर नीति और सीमा प्रबंधन को प्रभावित किया। चूंकि भारत-नेपाल के मध्य 1751 किलोमीटर लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा है और यह भारत के सीमा पांच राज्यों के 20 जिलों में फैली हुई है लिहाजा अब नेपाल की हलचलें भी भारत के सीमाई क्षेत्रों, प्रवासी मजदूरों और रणनीतिक हितों पर असर डालेंगी।
स्पष्ट है कि स्थिरता का रास्ता केवल सत्ता परिवर्तन में नहीं है। नेपाल को युवाओं की आकांक्षाओं को समझना और पूरा करना होगा। रोजगार सृजन, शिक्षा और कौशल विकास पर ठोस पहल करनी होगी। भ्रष्टाचार पर अंकुश और संवैधानिक संस्थाओं की पारदर्शिता व जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बहाल करना होगा, क्योंकि सोशल मीडिया पर बैन जैसे कठोर कदम लोकतंत्र को कमजोर करते हैं। साथ ही, विदेश नीति में संतुलन साधना अनिवार्य है, ताकि भारत, चीन और अमेरिका की प्रतिस्पर्धा के बीच नेपाल अपनी संप्रभुता सुरक्षित रख सके। आज की घटनाएं दक्षिण एशिया के लोकतंत्रों के लिए गहरी चेतावनी भी हैं। श्रीलंका हो या बांग्लादेश, अथवा नेपाल की सडक़ों पर उतरे युवाओं का विद्रोह, हर जगह संदेश एक ही है कि जनता की आवाज दबाकर स्थिरता संभव नहीं। असली स्थिरता लोकतांत्रिक भागीदारी, अवसरों की समानता और पारदर्शी शासन से ही आएगी। भारत और उसके पड़ोसी देश इस चेतावनी को कितनी गंभीरता से लेते हैं, इसी पर क्षेत्र के भविष्य की दिशा निर्भर करेगी।




