संपादकीय

वंदे मातरम को पूर्ण करो

क्या राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम’ को गाना अथवा बोलना बाध्यकारी है? क्या उसे जबरन किसी समुदाय पर थोपा जा सकता है? क्या ‘वंदे मातरम’ को काट-छांट कर उसके साथ विश्वासघात किया गया? ‘राष्ट्रगीत’ को अपमानित किया गया? क्या ‘राष्ट्रगीत’ की आत्मा को खंडित किया गया? मौजूदा संदर्भों में सरकार और संसद क्या ‘राष्ट्रगीत’ की मौलिक गरिमा बहाल कर सकती हैं? क्या ‘वंदे मातरम’ को अब संपूर्ण रूप दिया जा सकता है और उसे संवैधानिक मान्यता मिल सकती है? हमें लगता है कि आज का प्रासंगिक सवाल यही है। गीत की संपूर्णता ही ‘वंदे मातरम’ को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। संसद में ‘वंदे मातरम’ के 150 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में चर्चा की गई थी। लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी और राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने चर्चा का आगाज किया। संविधान सभा ने ‘वंदे मातरम’ को ‘राष्ट्रगीत’ का दर्जा दिया और गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के ‘जन गण मन..’ को ‘राष्ट्रगान’ का सम्मान दिया गया। दोनों की स्थिति संवैधानिक है, लिहाजा स्वीकार्य और अनिवार्य भी है। जबरन अथवा बाध्य करने का सवाल या संदेह नहीं किया जाना चाहिए। ये गीत राष्ट्रीय हैं, लिहाजा धार्मिक, मजहबी आस्थाओं से ऊपर हैं। संविधान के अनुच्छेद 19 में हमें ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का अधिकार मिला है, तो अनुच्छेद 25 ‘धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार’ प्रदान करता है। ये दोनों गीत भी संवैधानिक उसी तरह हैं, जिस तरह ‘तिरंगा’ भारत के प्रत्येक हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, तमिल, कन्नड़, तेलुगू से लेकर पूर्वोत्तर के निवासी तक के लिए ‘राष्ट्रीय ध्वज’ है। ‘वंदे मातरम’ हमारे देश की आजादी के आंदोलन का गीत था। महात्मा गांधी ने उसे एकता, प्रेरणा और ऊर्जा का गीत माना था। आजादी के आंदोलनों के दौरान ‘वंदे मातरम’ मुस्लिम क्रांतिवीरों का भी गीत था। उर्दू अखबारों ने भी ‘वंदे मातरम’ की स्तुति में बहुत कुछ लिखा और छापा था। यदि मुस्लिमवादी नेता जिन्ना ने ‘वंदे मातरम’ को मुसलमानों की भावनाओं के खिलाफ करार दिया और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू को उनकी मांग के सामने झुकना पड़ा और ‘वंदे मातरम’ के छंद काट दिए गए। हमारा मानना है कि उस अध्याय को आज विस्मृत कर देना चाहिए।

वह आज प्रासंगिक भी नहीं है। भारत को आजाद हुए 78 लंबे साल बीत चुके हैं। भारत का अपना संविधान, संवैधानिक व्यवस्था, संसद और केंद्र-राज्य सरकारें हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में कहा कि ‘वंदे मातरम’ के साथ विश्वासघात किया गया। तत्कालीन मुस्लिम लीग के सामने कांग्रेस ने घुटने टेक दिए। ‘वंदे मातरम’ के टुकड़े कर दिए गए, वहीं से देश के विभाजन का बीज बो दिया गया। जिन्ना की आपत्ति पर आजादी के आंदोलन, बलिदान, त्याग, तपस्या, एकता, प्रेरणा और ऊर्जा के गीत को खंडित कर दिया गया। नई पीढ़ी को यह विभाजनकारी और नकारात्मक इतिहास पढ़ाने से भी हासिल क्या होगा? उस अतीत पर प्रलाप करके भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है। राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने सभापति सीपी राधाकृष्णन को पत्र लिख कर यह खुलासा किया कि कौन सांसद और राजनीतिक दल ‘वंदे मातरम’ को गाने के खिलाफ हैं। वे धार्मिक तौर पर इस गीत को स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि इसमें देवी-देवताओं और कमल के फूल का उल्लेख है। खासकर मुसलमान मूर्ति-पूजा के खिलाफ हैं। वे ‘अल्लाह’ के अलावा किसी और के सामने झुक नहीं सकते और न ही इबादत कर सकते हैं। क्या इसी आधार पर राष्ट्रीय प्रतीकों और गीतों को खारिज किया जा सकता है? दरअसल इन तमाम दलीलों को छोड़ भी दें, तो यह सवाल सामने है कि अब भारत सरकार ‘वंदे मातरम’ के लिए क्या कर सकती है? क्या सत्ता पक्ष संसद में संविधान संशोधन पेश करके, ‘वंदे मातरम’ के सभी छह छंदों को एकजुट करके, ‘राष्ट्रगीत’ की मान्यता दिला सकता है? जो काटा-छांटी की गई, वह 1937 का दौर था। आज 2025 में भारत विश्व की एक महाशक्ति है। क्या ‘वंदे मातरम’ उसी संपूर्ण रूप में देश के सामने लाया जा सकता है, जिस रूप में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने लिखा था और वह आजादी के संघर्ष का गीत बना? इस विषय पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए।

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