संपादकीय

अब ‘अति पिछड़े’

पिछड़े, अंतत:, पिछड़े ही रहे हैं और संभवत: इसी हाल में रहेंगे। वे कभी अगड़े नहीं बन सकते, क्योंकि सरकारें ऐसा चाहती हैं। बिहार में चुनाव का वक्त आया है, तो फिर ‘अति पिछड़ों’ की याद चली आई है। देश की आजादी के 78 लंबे सालों के दौरान पिछड़ों को ‘आरक्षण का चुग्गा’ जरूर दिया जाता रहा है, लेकिन वह भी ‘अति सीमित’ है, लिहाजा पिछड़े कभी भी अगड़े नहीं बन सकते। शायद यही उनकी नियति है। तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को स्वीकृति देकर लागू किया था, तो पिछड़ों के कुछ नसीब खुले थे। अब एक बार फिर जातीय गणना और आरक्षण की घोषणाएं की गई हैं। कांग्रेस ने संकल्प लिया है कि बिहार में उसकी सरकार बनी, तो सरकारी ठेकों में 50 फीसदी तक आरक्षण ‘अति पिछड़ों’ को दिया जाएगा। निजी शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लिए भी आरक्षण लागू किया जाएगा। पंचायतों और नगर निकायों में अभी तक जो 20 फीसदी आरक्षण है, उसे बढ़ा कर 30 फीसदी किया जाएगा। हम याद दिला दें कि जब 2005 में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे, तो उन्होंने ‘अति पिछड़ों’ का एक अलग वर्गीकरण किया था और उन्हें पहली बार पंचायतों और नगर निकायों में 20 फीसदी आरक्षण की सुविधा दी थी। यही नहीं, उस दौर में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 40.05 करोड़ रुपए की राशि भी आवंटित की थी। नतीजतन तब से आज तक ‘अति पिछड़े’ नीतीश के पक्ष में लामबंद रहे हैं। करीब 70-80 फीसदी तक मतदान भी जनता दल-यू के पक्ष में किया जाता रहा है। अब कांग्रेस ने कुछ घोषणाएं कर नीतीश के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश की है। कांग्रेस ने अपने ‘संकल्प-पत्र’ में यह भी वायदा किया है कि सरकार बनने पर वह ‘अति पिछड़ा अत्याचार निवारण अधिनियम’ भी पारित करेगी। बेशक नीतीश भी अपना वोट बैंक बचाए रखने को कुछ बड़ी आरक्षणनुमा घोषणाएं कर सकते हैं। वैसे आज प्रधानमंत्री मोदी के जरिए मुख्यमंत्री ने 75 लाख महिलाओं को 10,000 रुपए प्रति, यानी 7500 करोड़ रुपए, योजना का शुभारंभ कराया है। बेरोजगार युवाओं के लिए मासिक भत्ता, स्नातकों के लिए लैपटॉप आदि कई घोषणाओं की झड़ी लगी है। बहरहाल सवाल फिर भी यथावत है कि क्या ऐसी घोषित व्यवस्थाओं से अति पिछड़े ‘अगड़े’ बन सकेंगे। हमारा अनुभव है कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं होगा। देश के कुछ आंकड़े प्रस्तुत हैं, जिनके लिए तमाम सरकारें दोषी और जिम्मेदार हैं।

देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 2630 ऐसे पद आज भी रिक्त हैं, जिन पर अनुसूचित जाति, जनजाति और अति पिछड़े प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर, असिस्टेंट प्रोफेसरों की नियुक्तियां की जानी हैं। दिल्ली के एम्स अस्पताल में ही रेजिडेंट डॉक्टरों के ऐसे 730 पद खाली पड़े हैं, जो दलित, आदिवासी और अति पिछड़ों के लिए लगभग आरक्षित हैं, लेकिन नियुक्तियां नहीं की जा रही हैं। एक अनुमान है कि देश में 63 फीसदी से अधिक आबादी ओबीसी और अति पिछड़ों की है। इसे बिहार तक समेट कर न देखा जाए। संविधान के मुताबिक, पर्याप्त शिक्षा के बाद शीर्ष और बेहतर सरकारी पदों पर नियुक्तियां अति पिछड़ों का भी अधिकार है। आज कांग्रेस टसुए बहा रही है, लेकिन प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक सभी पिछड़ा-विरोधी रहे हैं और किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ थे, लिहाजा मंडल आयोग की रपट धूल फांक रही थी। आज राहुल गांधी ने घोषणा की है कि कांग्रेस आरक्षण की 50 फीसदी की दीवार को भी तोड़ेगी। क्या पार्टी सर्वोच्च अदालत के फैसले के खिलाफ भी जाएगी? केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह ने संसद में जो जानकारी दी थी, उसके मुताबिक, बीते पांच सालों में दलित, आदिवासी के आरक्षित और पिछड़े वर्गों के कुल 1195 चेहरों को चुना गया। उन्हें संघ लोक सेवा आयोग ने आईएएस, आईपीएस, आईएफएस आदि का कैडर प्रदान किया। इतने बड़े देश की पिछड़ी आबादी में क्या यह संख्या पर्याप्त है? और ये पद अभी जूनियर स्तर के हैं। सरकार बताए कि महत्वपूर्ण और शीर्ष पदों पर कितने ‘अति पिछड़े’ कार्यरत हैं। बहरहाल यह बहस अनंत है।

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