घुसपैठियों को कौन खदेड़ेगा

2016 में केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने संसद को बताया था कि भारत में लगभग 2 करोड़ बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। यह ऑस्टे्रलिया की पूरी आबादी के बराबर है। 2004 में तत्कालीन यूपीए सरकार के गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने खुलासा किया था कि देश के 17 राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में कुल 1 करोड़ 20 लाख 53,950 अवैध बांग्लादेशी प्रवासी मौजूद हैं। ये आंकड़े सिर्फ बांग्लादेशी घुसपैठियों के थे, जबकि म्यांमार, नेपाल और अन्य देशों से भी अवैध तरीके से लोग भारत में घुसते रहे हैं। अब 2025 में ये तमाम आंकड़े काफी ज्यादा बढ़ चुके होंगे! बुनियादी आंकड़ा 2 करोड़ भी मान लेते हैं, तो उस अनुपात में घुसपैठियों को देश के बाहर खदेड़ा क्यों नहीं जा रहा है? यदि उनके भी मानवाधिकार की चिंता करें, तो 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद, औसतन हर साल, घुसपैठियों को उनके मूल देश भेजने का आंकड़ा बेहद कम है। गति बेहद धीमी है। दरअसल हम न तो यूपीए की मनमोहन सरकार की कार्रवाई से तुलना के पक्षधर हैं और न ही अमरीका, ब्रिटेन और यूरोप के अवैध प्रवासियों को देश के बाहर करने के अभियानों को उदाहरण मानते हैं। यदि प्रधानमंत्री मोदी ‘स्वतंत्रता दिवस’ पर लालकिले की प्राचीर से ‘राष्ट्रीय डेमोग्राफी मिशन’ की घोषणा करते हैं और असम, बंगाल, बिहार की जनसभाओं में घुसपैठ के लिए कांग्रेस को ही कोसते हैं, कांग्रेस को ‘घुसपैठियों की रक्षक’ करार देते हैं, तो यह घुसपैठ का कोई तार्किक समाधान नहीं है। यह विशुद्ध राजनीति है। प्रधानमंत्री ‘राष्ट्रवाद बनाम घुसपैठिए’ के जरिए हिंदू-मुसलमान की सियासत कर ध्रुवीकरण को तेज करना चाहते हैं। असम और पश्चिम बंगाल में 2026 में चुनाव होने हैं। बिहार में तो दो माह में ही चुनाव संपन्न हो जाएंगे। लिहाजा घुसपैठियों के खिलाफ हुंकारें समझ में आती हैं। बेशक देश के सीमावर्ती जिलों में जनसांख्यिकी संतुलन कई जगह बिगड़ चुका है।
कई जगह मुसलमान बहुमत में आ चुके हैं और हिंदू अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं। असम में 50 लाख से अधिक और बंगाल में 57 लाख से अधिक बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों के कारण ये समीकरण बदल रहे हैं। नतीजतन सांप्रदायिक दंगों के हालात भी बनते रहे हैं। बंगाल के मुर्शिदाबाद और मालदा में जो हिंदू-विरोधी उत्पात मचाए गए, हिंसक प्रहार किए गए, घर उजाड़ दिए गए, उस परिदृश्य पर कलकत्ता उच्च न्यायालय का फैसला पढ़ा जा सकता है। सवाल है कि सरकार ने असम में एनआरसी की जो कवायद की थी, उसके नतीजों का क्या हुआ? वह प्रक्रिया अचानक रोक क्यों दी गई? प्रधानमंत्री मोदी इस जनसांख्यिकी परिवर्तन को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए संवेदनशील खतरा मानते हैं। हमारे युवाओं के हिस्से के संसाधन और रोजगार छिन रहे हैं। महिलाओं की इज्जत के साथ छल-कपट, खिलवाड़ किए जा रहे हैं। यकीनन यह विकराल राष्ट्रीय समस्या लगती है, लिहाजा यह प्रधानमंत्री और उनकी सरकार की प्राथमिक चिंता, बुनियादी सरोकार होना चाहिए। इसमें आम आदमी क्या कर सकता है? आम आदमी आबादी के असंतुलन और बहुमत को नहीं रोक सकता। सरकार किसलिए होती है? प्रधानमंत्री के पास तमाम एजेंसियां, सूचनाएं, पुलिस, सुरक्षा बल, संसाधन सभी कुछ उपलब्ध है, लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री देश की जनता को यह जानकारी नहीं देते कि उनके 11 साला कार्यकाल में घुसपैठियों को खदेडऩे की सालाना संख्या 51 तक सिमट कर क्यों रह गई? 300-400 का आंकड़ा भी नाकाफी है। हम प्रधानमंत्री से विपक्ष की मानिंद राजनीतिक सवाल नहीं कर रहे हैं। हम घुसपैठ के मुद्दे पर बेहद संजीदा हैं। वे भारत के लोकतंत्र की तस्वीर और संतुलन भी बिगाड़ सकते हैं। प्रधानमंत्री देश को यह भी बताएं कि मिशन किस तरह काम करेगा? उसका जनादेश क्या होगा? उसकी अनुशंसाएं कितनी कानूनन होंगी, लिहाजा प्रभावशाली भी साबित होंगी? यदि ज्यादातर घुसपैठियों के पास सरकारी दस्तावेज हैं, तो उन्हें रद्द भी कैसे किया जा सकता है?




