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बौद्धिक गुलामी से मुक्ति का अभियान है संघ

भविष्य में भी ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह की संभावनाओं को देखते हुए उन्होंने अपने खिलाफ विद्रोह करने वाली कांग्रेस (1885) और मुसलिम लीग (1905) का चयन भी स्वयं ही अत्यंत शातिराना तरीके से किया। यही कारण है कि इन दोनों संस्थाओं का गठन करने वाले लोगों की सूची देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वे सभी पश्चिमी संस्कृति का गुणगान करने वाले बौद्धिक गुलाम थे। उनकी लड़ाई भौगोलिक गुलामी के खिलाफ थी, न कि पश्चिमी जगत की बौद्धिक गुलामी के खिलाफ। दरअसल ब्रिटिश सरकार भविष्य में देश से जाते समय भारत की सत्ता इन बौद्धिक गुलामों को सौंपने की तैयारी कर रही थी। महात्मा गांधी अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद इस ब्रिटिश षड्यंत्र को समझ रहे थे…

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी यात्रा के सौ साल पूरे कर लिए हैं। इस अवसर पर भारत सरकार के डाक विभाग ने एक टिकट जारी किया है। इसी अवसर पर भारत सरकार ने सौ रुपए का एक विशेष सिक्का भी जारी किया है। जाहिर है सौ वर्ष पूरे होने पर संघ का मूल्यांकन और विश्लेषण समाजविज्ञानी अपने अपने तरीके से करेंगे ही। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर संघ का मूल्यांकन करते हुए एक महत्वपूर्ण सूत्र दिया है। मोदी के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश को बौद्धिक गुलामी से मुक्त करवाने का प्रयास किया। संघ की नीति को समझने के लिए यह सूत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। लेकिन सूत्र की तह तक जाने से पहरे ‘गुलामी’ की अवधारणा को समझ लेना होगा। एक गुलामी भौगोलिक गुलामी होती है और दूसरी गुलामी बौद्धिक होती है। दोनों में क्या अंतर है? पहले भौगोलिक गुलामी की ही बात की जाए। हर देश का अपना भूगोल होता है जो उसकी सीमाएं निर्धारित करता है। उन सीमाओं के भीतर हर एक देश का अपना प्रशासन होता है। यह प्रशासन निश्चित विधि-विधान के अनुसार चलता है। जब कोई देश बल या छल से किसी दूसरे देश पर कब्जा कर ले और उसके प्रशासन को हटा कर अपना प्रशासन थोप दे तो उसे भौगोलिक गुलामी कहा जाता है। उदाहरण के लिए भारत पर मध्य एशिया के तुर्कों ने कब्जा कर लिया। उन्होंने यहां अपना प्रशासन स्थापित कर लिया।

कालांतर में तुर्कों को पराजित कर मध्य एशिया के ही मुगलों ने यहां कब्जा कर लिया। मुगलों से भारत को मुक्त करवा लेने की दहलीज तक भारत के लोग पहुंच ही गए थे कि 1757 के आसपास यहां व्यापार करने के लिए आए इंग्लैंड के अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा कर लिया। इस पूरे प्रसंग को भारत की भौगोलिक गुलामी कहा जा सकता है। अब बौद्धिक गुलामी की बात। इसके लिए भौगोलिक गुलामी की भी जरूरत नहीं होती। जब कोई देश किसी दूसरे देश के लोगों के मस्तिष्क और चिंतन पर कब्जा कर ले और उस देश के लोग अपने देश की परंपराओं, आस्था, इतिहास, विरासत, प्रतीकों और चेतना को तिलांजलि देकर दूसरे देश की विरासत, प्रतीकों, इतिहास को अपना लें तो इसे बौद्धिक गुलामी कहा जाता है। इस पृष्ठभूमि में एटीएम (अरब, तुर्क, मुगल) मूल के लोगों द्वारा जब भारत पर कब्जा किया गया था तो उस काल की गुलामी क्या केवल भौगोलिक गुलामी थी या बौद्धिक गुलामी भी थी, इसी प्रश्न का उत्तर ब्रिटिश गुलामी के संदर्भ में भी ढूंढना होगा। सबसे पहले एटीएम काल की गुलामी की बात की जाए। इसमें तो कोई शक नहीं कि यह गुलामी भौगोलिक थी। लेकिन एटीएम मूल के शासकों ने भारत की संस्कृति, इतिहास व आस्था के प्रतीक मंदिरों को तोड़ा। इसके साथ ही भारतीयों को बल-छल से इस्लाम पंथ या शिया पंथ में जाने के लिए विवश किया। सरकारी कामकाज के लिए भारतीय भाषाओं में से किसी भाषा को न अपना कर फारसी भाषा को अपनाया। लेकिन इन शासकों ने देश के सामाजिक ताने-बाने से ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की। जो भारतीय भय या लोभ से इस्लाम पंथ या शिया पंथ में चले भी गए, उन्होंने भी मोटे तौर पर अपनी परंपराएं नहीं छोड़ीं। यही कारण हैं कि गुरु नानक देव जी उसका जिक्र भी करते हैं कि ये मतांतरित लोग घर के अंदर तो पूजा करते हैं और बाहर एटीएम शासकों को खुश रखने के लिए मुसलमान होना दिखाने का प्रयास करते हैं। एटीएम का शासन शहरों तक सीमित था। गांव से उनका संबंध मोटे तौर पर साल में दो बार फसल के वक्त राजकीय हिस्सा वसूलने तक सीमित था।

लेकिन अंग्रेज शासकों का उद्देश्य और राज्य पद्धति इससे अलग थी। उन्होंने देश को भौगोलिक रूप से तो गुलाम बनाया ही, लेकिन वे जानते थे कि कोई भी देश बहुत देर तक किसी दूसरे देश की भौगोलिक गुलामी में नहीं रह सकता। यदि उसको बौद्धिक रूप से गुलाम बना लिया जाए तो कालांतर में भौगोलिक गुलामी की जरूरत ही नहीं रहती। बौद्धिक रूप से गुलाम देश दूसरे देश के ‘हिज मास्टर्स वॉयस’ बन कर ही रह जाता है और उसको भौगोलिक रूप से गुलाम रखने की जरूरत ही नहीं रहती। अंग्रेजों ने भारत को बौद्धिक रूप से ही गुलाम बनाने की रणनीति अपनाई। इसके लिए यहां नई शिक्षा पद्धति विकसित की। यहां के संस्कृत ग्रंथों और पांडुलिपियों का अंग्रेजी में अपने हितों के अनुकूल अनुवाद करवाया। भारतीय भाषाओं को पूरी शिक्षा पद्धति से बाहर कर दिया। संस्कृत को मृत भाषा घोषित कर दिया। भारतीय सामाजिक व्यवस्था को लेकर ब्रिटिश नौकरशाहों ने ग्रंथ लिखे जिनका जमीनी सच्चाई से कुछ लेना-देना नहीं था। वर्ण का अनुवाद कास्ट किया और जनगणना विभाग के माध्यम से हजारों-हजारों कास्ट और ट्राइब्स की अवधारणाओं को प्रचारित किया और अपनी स्थापनाओं में एक समुदाय को दूसरे समुदाय, एक भाषा को दूसरी भाषा के विरोध में स्थापित किया। अंग्रेजों ने लंबे अरसे तक यह षड्यंत्र जारी रखा जिसका परिणाम यह हुआ कि 1857 की आजादी की प्रथम लड़ाई के बाद वे चौकन्ना हो गए। भविष्य में भी ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह की संभावनाओं को देखते हुए उन्होंने अपने खिलाफ विद्रोह करने वाली कांग्रेस (1885) और मुसलिम लीग (1905) का चयन भी स्वयं ही अत्यंत शातिराना तरीके से किया। यही कारण है कि इन दोनों संस्थाओं का गठन करने वाले लोगों की सूची देखने से स्पष्ट हो जाता है कि वे सभी पश्चिमी संस्कृति का गुणगान करने वाले बौद्धिक गुलाम थे।

उनकी लड़ाई भौगोलिक गुलामी के खिलाफ थी, न कि पश्चिमी जगत की बौद्धिक गुलामी के खिलाफ। दरअसल ब्रिटिश सरकार भविष्य में देश से जाते समय भारत की सत्ता इन बौद्धिक गुलामों को सौंपने की तैयारी कर रही थी। महात्मा गांधी अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद इस ब्रिटिश षड्यंत्र को समझ रहे थे। इसीलिए उन्होंने नेहरु से अपील की थी कि अब कांग्रेस को खत्म कर दो, ताकि भारतीय इच्छानुसार अपनी सरकार चुन सकें। लेकिन नेहरु ने सत्ता मिलने के बाद गांधी को दरकिनार कर लार्ड माऊंटबेटन पर ज्यादा विश्वास किया। संघ के संस्थापक भी अंग्रेजों की इस शातिराना योजना को समझ गए थे। यही कारण था कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के इस भारत विरोधी षड्यंत्र को ध्वस्त करने के लिए 1925 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना की। नरेंद्र मोदी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि संघ पश्चिमी जगत की बौद्धिक गुलामी के खिलाफ लड़ रहा था। बौद्धिक लिहाज से यदि व्यक्ति को ‘गुलामी’ की अवधारणा स्पष्ट हो जाती तो भौगोलिक गुलामी से लडऩे की उसकी ताकत सौ गुणा बढ़ जाती है। संघ की आजादी की लड़ाई में यह सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी।-कुलदीप चंद अग्निहोत्री

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