‘स्वदेशी’ महज एक नारा

हम सात दशकों से ‘स्वदेशी’ के नारे सुन रहे हैं। आजादी से पहले भी यह आरएसएस का बुनियादी मुद्दा था। 1951 में ‘जनसंघ’ का गठन हुआ, तो संघ के इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर ग्रहण किया गया। ‘जनसंघ’ का यह चुनावी मुद्दा भी होता था। जब 1980 में भाजपा का गठन हुआ, तो उसने भी ‘स्वदेशी’ का खूब प्रचार किया। दरअसल हम ‘स्वदेशी’ के विरोधी नहीं हैं, क्योंकि यह देश की आत्मनिर्भरता का प्राथमिक मुद्दा है। अब आरएसएस के शताब्दी समारोह और ‘दशहरा संबोधन’ में क्रमश: प्रधानमंत्री मोदी और सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक बार फिर ‘स्वदेशी’ का गुणगान किया है। स्वदेशी और खादी को देश की आजादी से जोड़ा है, लेकिन सवाल है कि क्या ‘स्वदेशी’ से ही 146 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश का गुजारा संभव है? क्या देश की अर्थव्यवस्था का विस्तार संभव है? हमारा मानना है कि वैश्विक उदारीकरण के दौर में ‘स्वदेशी’ के आधार पर ही अंतरराष्ट्रीय व्यापार, विदेशी निवेश, निर्यात और अंतत: आत्मनिर्भरता संभव नहीं हैं। खादी का उत्पादन 3783 करोड़ रुपए का है और व्यापार 7146 करोड़ रुपए का है। वैश्विक व्यापार में भारत विश्व में 10वें स्थान पर है। हम 4 ट्रिलियन डॉलर से अधिक की अर्थव्यवस्था हैं। महज इतनी व्यापारिक पूंजी से देश कैसे चल सकता है? भारत का कुल निर्यात 37 लाख करोड़ रुपए और आयात 61 लाख करोड़ रुपए का है। लिहाजा हमारा व्यापार घाटा करीब 9000 करोड़ रुपए का है। यदि ‘स्वदेशी’ को 100 फीसदी लागू करना है, तो सूक्ष्म, लघु, मध्यम उद्यमों की चिंता स्पष्ट करें, जो ‘स्वदेशी’ की रीढ़ हो सकते हैं। कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान तालाबंदी से 75082 लघु और कुटीर कंपनियां बंद हो गईं। उससे पहले वे नोटबंदी से व्यापक तौर पर प्रभावित हुईं।
अनुमान है कि ऐसे कुटीर उद्योगों की करीब 6 लाख कंपनियां, फैक्टरियां बंद हो चुकी हैं। बेशक सरकार ने आर्थिक पैकेज और आसान बैंकिंग कर्ज घोषित किए, लेकिन एमएसएमई के अस्तित्व को बचाया नहीं जा सका। सरकार औपचारिक बयान देकर कुटीर उद्योगों की अद्यतन स्थिति स्पष्ट कर सकती है। मोदी सरकार ने देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में मैन्यूफैक्चरिंग के योगदान का लक्ष्य 23 फीसदी तय किया था। वह 16-17 फीसदी से घटकर करीब 13 फीसदी पर आ गया है। जब भारत मैन्यूफैक्चरिंग के क्षेत्र में फिलहाल पिछड़ा है, तो ‘स्वदेशी’ कैसे संभव है? भारत में ‘स्वदेशी’ उत्पादन और अर्थव्यवस्था की सोच को 1991 से पहले ही लागू करनी चाहिए थी। जो भूमंडलीकरण और उदारीकरण 1991 में भारत में शुरू किया गया, उसे 1979 में ही चीन में लागू कर दिया गया था, नतीजतन उसे बहुत पहले आत्मनिर्भर होने में मदद मिली। आज उसकी औद्योगिक नीति ऐसी है कि वह किसी भी देश पर आश्रित नहीं है। अमरीका के साथ मात्र 13-14 फीसदी व्यापार की ही उसे जरूरत है। यदि वह भी नहीं हो, तो चीन की अर्थव्यवस्था डांवाडोल नहीं हो सकती। भारत की ऐसी कोई पुख्ता औद्योगिक नीति नहीं है। आज दक्षिण पूर्व एशिया के देश अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत सरीखे शक्तिशाली देश को पछाड़ रहे हैं। जरा प्रधानमंत्री या वाणिज्य मंत्री इन देशों का एक बार दौरा कर आएं, तो पता चल जाएगा कि व्यापार कैसे करना है? अमरीका ने हम पर 50 फीसदी टैरिफ थोप रखा है। उससे उन कंपनियों पर विपरीत असर पडऩा तय है, जिन्होंने करोड़ों का माल बना रखा है।
मसलन-कालीन और कपड़े तो ‘स्वदेशी’ हैं। यदि टैरिफ बढऩे से अमरीकी बाजार में उनकी खपत नहीं हो पा रही है, तो क्या सरकार कोई बंदोबस्त कर सकती है कि उनका ‘स्वदेशी’ माल देश में ही बिक सके? मोदी सरकार ने अपने ही 11 साला कालखंड में रक्षा, बीमा, संचार, दवा, बहु आइटम कारोबार आदि में 74 फीसदी से 100 फीसदी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की व्यवस्थाओं को लागू किया है। यदि स्वदेशी माल ही बेचना और खरीदना है, तो विदेशी निवेश किसलिए चाहिए? कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी भारत में निवेश क्यों करेगी? उदारीकरण का क्या होगा? हम एक बार फिर स्पष्ट कर दें कि हम ‘स्वदेशी’ के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन आज के दौर में सबसे बड़ी महाशक्ति अमरीका भी दूसरे देशों के सामान पर आश्रित है। भारत अलग-थलग होकर आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकता। ऐसा संकेत सरसंघचालक ने भी किया है। ऐसे समय में जबकि अंतरराष्ट्रीय निर्भरता बढ़ती जा रही है, स्वदेशी को एक सीमा तक ही अपनाया जा सकता है। हर देश आज दूसरे देशों से संबंधों को मजबूत बना रहा है। स्वदेशी की अपनी सीमाएं हैं।




