संपादकीय

कंगाली या बदलाव का चुनाव

चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित कर दी हैं। नवंबर 6 और 11 को मतदान होगा और 14 नवंबर को जनादेश सार्वजनिक किया जाएगा। बिहार के लिए ये तारीखें बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि 7.43 करोड़ मतदाता तय कर सकेंगे कि किसकी सरकार बनेगी। बिहार देश और दक्षिण एशिया का सबसे गरीब राज्य है। साक्षरता दर में भी पिछड़़ा है। प्रति व्यक्ति आय 32,227 रुपए है, जो राष्ट्रीय औसत की एक-तिहाई है। 1960 के दशक में बिहार देश की शीर्ष 5 अर्थव्यवस्थाओं में एक था और गुजरात, कर्नाटक सरीखे राज्यों से भी आगे था, लेकिन दशकों से बिहार पिछड़ता हुआ आज देश के सबसे निचले पायदान पर है। मतदाताओं के भीतर यह सवाल स्वाभाविक होगा कि नई सरकार उनकी आर्थिक स्थिति को संवारेगी अथवा बिहार कंगाल ही होता रहेगा? बेशक बाल कुपोषण हो या स्कूल में नामांकन की स्थिति हो अथवा शिशु मृत्यु दर हो या पानी, स्वच्छता और बिजली तक आम बिहारी की पहुंच हो, हर संदर्भ में बिहार पिछड़ा है। यह चुनौती सभी दलों और मतदाताओं के लिए है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आनन-फानन में लगभग सभी वर्गों में ‘चुग्गे’ बांटे हैं। वह 2005 से, भाजपा अथवा राजद के साथ, राज्य के मुख्यमंत्री हैं, लेकिन इस बार ही याद आया है कि करोड़ों महिलाओं को 10,000 रुपए प्रति बांटे जाएं। अभी तक 1.21 करोड़ महिलाओं के खाते में यह राशि डाली जा चुकी है। इधर चुनाव जारी रहेगा और उधर महिलाओं के खातों में 10,000 रुपए डाले जाते रहेंगे। यह चुनाव की आदर्श आचार संहिता का मजाक है। तर्क है कि चुनाव की घोषणा से पहले कैबिनेट ‘महिला रोजगार योजना’ को स्वीकृति दे चुकी थी। बिहार में महिला मतदाता करीब 3.49 करोड़ हैं और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सार्वजनिक मंच से उन्हें आग्रह कर चुके हैं कि चुनाव में हमारा ध्यान रखना। बीते कुछ चुनावों से देखा जा रहा है कि महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अधिक मतदान करती हैं और यह नीतीश तथा भाजपा का ठोस वोट बैंक रहा है। लिहाजा महिलाओं की इस योजना को क्या माना जाए? कमोबेश यह सशक्तिकरण तो नहीं है। बहरहाल 3.61 लाख करोड़ रुपए के कर्ज वाले बिहार का अपना राजस्व 59,520 करोड़ रुपए है और मुफ्त घोषणाओं पर 37083 करोड़ रुपए खर्च होंगे।

राज्य में करीब 95 लाख परिवार गरीबी-रेखा के नीचे हैं। मात्र 4 फीसदी लोगों की आय 50,000 रुपए या अधिक है। 34 फीसदी से ज्यादा घर ऐसे हैं, जो 6000 रुपए माहवार कमाने में भी अक्षम हैं। मात्र 6 फीसदी स्नातक हैं। राज्य में शराबबंदी लागू है, लेकिन शराब माफिया ने 50,000 करोड़ रुपए का मुनाफा कमाया है। इस संदर्भ में 14 लाख से अधिक मुकदमे लंबित या विचाराधीन हैं। दुपहिया रखने वालों की संख्या दयनीय है। यह बिहार की औसत तस्वीर है, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा-एनडीए और विपक्षी महागठबंधन ने चुनावी घोषणाएं की हैं कि बिजली मुफ्त देंगे। बेरोजगारी भत्ता युवाओं को देंगे। सामाजिक तौर पर पेंशन मुहैया कराएंगे। नए पंजीकृत वकीलों को भी 5000 रुपए माहवार वेतन-भत्ता देंगे। यकीनन बिहार में मुफ्त की बारिश है। जो बटोर सके, तो बटोर ले। जिस राज्य सरकार ने 44,000 करोड़ रुपए के अतिरिक्त कर्ज का बंदोबस्त करना शुरू किया है और लाखों करोड़ रुपए का कर्ज पहले से ही है। ऐसा बिहार अपनी गरीबी और पिछड़ेपन से कैसे उबरेगा? बेशक बिहार को केंद्र की मोदी सरकार का बहुत सहारा है। मोदी सरकार जनता दल-यू के 12 सांसदों के समर्थन के भरोसे है। इस बार जब देश का आम बजट पेश किया गया था, तो बिहार के लिए इतने आर्थिक आवंटन किए गए थे कि विपक्ष ने उसे ‘बिहार का बजट’ करार दिया था। महिलाओं वाली योजना का शुभारंभ भी प्रधानमंत्री मोदी ने किया था। ऐसा कब तक चलेगा? बिहार की आर्थिक स्थिति कैसे संवरेगी? पलायन को हम महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं मानते, क्योंकि हर राज्य में पढऩे-लिखने के बाद लोग बाहर चले जाते हैं। ऐसा गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल आदि राज्यों में भी व्यापक स्तर पर होता रहा है। बिहार में जरूरत ईमानदारी और योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन की है। मुफ्त से कुछ वोट तो संभव हैं, लेकिन राज्य का आर्थिक उद्धार नहीं हो सकता। बिहारवासी सोचें और इस चुनाव को ‘बदलाव’ के तौर पर ृग्र्रहण करें। बहरहाल, चुनाव संपन्न कराने को चुनाव आयोग को व्यापक प्रबंध करने होंगे। चुनाव में हिंसा की कोई घटना न हो, उसके लिए भी चुनाव आयोग तैयारी कर रहा है।

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