संपादकीय

‘हलाल’ के चिंतित मायने

उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ‘हलाल प्रमाणन’ वाले उत्पाद इस्तेमाल नहीं करने का आह्वान किया है। उन्होंने इसे आतंकवाद, इस्लामी धर्मान्तरण, लव जेहाद आदि हिन्दू-विरोधी गतिविधियों से जोड़ा है। योगी के मुताबिक, इस प्रमाणन का काफी पैसा आतंकवाद और धर्मान्तरण पर खर्च किया जाता है। यह देश की जनसंख्या के समीकरण बदलने की इस्लामी साजिश है। बिहार में चुनाव का मौसम है और योगी भाजपा के स्टार प्रचारकों में एक हैं। उन्होंने ‘राजनीतिक इस्लाम’ का मुद्दा भी उठाया है। चूंकि योगी आदित्यनाथ धुर हिन्दूवादी नेता हैं और उन्होंने 2023 से उप्र में ‘हलाल प्रमाणन’ पर पाबंदी थोप रखी है, लिहाजा उनके आरोप और आह्वान सियासी भी हो सकते हैं। चुनाव के दौरान हिन्दू-मुसलमान धु्रवीकरण के वह सूत्रधार रहे हैं, लेकिन देश में ‘हलाल प्रमाणन’ की सिर्फ 4 संस्थाएं हैं। चारों इस्लामी हैं। सरकार इस प्रमाणन से तटस्थ रही है। सवाल किया जा सकता है कि ऐसा क्यों? जबकि भारत सरकार के वाणिज्य मंत्रालय ने ही इन निजी संस्थाओं को ‘हलाल प्रमाणन’ के लिए अधिकृत किया है, लिहाजा ये किसी भी संदर्भ में ‘अवैध’ नहीं हैं। भारत सरकार की अनुमति के बिना ‘हलाल’ ठप्पे वाले उत्पादों का निर्यात नहीं किया जा सकता। ‘हलाल प्रमाणन’ सिर्फ मांस तक ही सीमित नहीं है। हालांकि इस प्रमाणन का चलन 1974 में मांस के लिए ही हुआ था, लेकिन 1993 में अन्य उत्पादों पर भी लागू कर दिया गया। अब दूध, दही, पनीर जैसे डेयरी उत्पाद, बिस्कुट, चिप्स, कोल्ड ड्रिंक, मसाले, तेल सरीखे शाकाहारी उत्पाद, फलियां, मेवे, अनाज और चीनी आदि भी ‘हलाल प्रमाणन’ के दायरे में हैं। यह दलील दी जाती रही है कि उत्पादों में ‘हराम’ अथवा निषिद्ध सामग्री (सूअर का मांस और शराब आदि) का उपयोग तो नहीं किया गया, उसके लिए ‘हलाल प्रमाणन’ अनिवार्य है। बेहद अहम सवाल है कि माचिस, चाय की प्याली, सरिया, सीमेंट, फ्लैट आदि में गैर-इस्लामी सामग्री का कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है? लेकिन उन पर भी यह प्रमाणन अनिवार्य है।

हास्यास्पद् है कि स्कूल, अस्पताल और अर्थव्यवस्था को भी ‘हलाल’ करार देने की कोशिशें जारी हैं। कुछ कामयाब भी रही हैं। केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने यह विचार दिया था कि बैंकिंग क्षेत्र को भी ‘हलाल प्रमाणन’ के दायरे में लाया जाए। यह दीगर है कि ऐसा राजनीतिक तौर पर संभव नहीं हो सका। कई दवाएं और सौन्दर्य प्रसाधन के उत्पाद ‘हलाल’ की निगरानी में हो सकते हैं, क्योंकि उनमें गैर-इस्लामी, निषिद्ध सामग्री इस्तेमाल की जाती रही है। यह सार्वजनिक मान्यता भी है। भारत में करीब 3200 उत्पाद ‘हलाल’ के ठप्पे के साथ बिकते हैं। ‘हलाल प्रमाणन’ की अर्थव्यवस्था ही करीब 8 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच चुकी है। कंपनियां इस प्रमाणन के लिए करीब 66,000 करोड़ रुपए खर्च करती हैं। क्या इस पूरी अर्थव्यवस्था का कोई अधिकृत ऑडिट कराया जाता है? दो अहम सवाल प्रासंगिक हैं। एक, भारत सरकार के पास जांच का सम्यक आधारभूत ढांचा है, तो ऐसा प्रमाणन सरकार या उसकी एजेंसियां क्यों नहीं जारी कर सकतीं? दूसरे, यह लाइसेंस ‘जमीयत उलेमा ए हिन्द’, ‘हलाल इंडिया प्रा. लिमि.’, ‘जमीयत उलेमा ए महाराष्ट्र’ और ‘हलाल सर्टिफिकेशन सर्विसेज इंडिया प्रा. लिमि.’ इन चार संस्थाओं को ही क्यों दिए गए? क्या इनके पास ‘हलाल’ जांचने और तय करने की तमाम कसौटियां उपलब्ध हैं? किसी गैर-इस्लामी संस्था को यह लाइसेंस क्यों नहीं दिया जा सकता? वह ज्यादा तटस्थ और ईमानदार साबित हो सकती है। यह इस्लामी चक्रव्यूह रचा गया है, क्योंकि ओआईसी के अधिकतर इस्लामी देश ‘हलाल प्रमाणन’ के बिना उत्पाद कबूल ही नहीं करते हैं। ऐसा ईसाइयों, यहूदियों, जैन, बौद्ध, सिख समुदायों के लिए तो विशेष प्रावधान नहीं किए गए हैं। सूअर का तो क्या, शाकाहारी समुदाय किसी भी प्राणी का वध करके उसका मांस नहीं खाते हैं। उनके लिए तो उत्पादों पर विशेष संकेत छपने चाहिए। योगी और भाजपा का मानना है कि प्रमाणन से जो पैसा आता है, उसका मोटा हिस्सा देश की जनसांख्यिकी बदलने पर भी किया जाता है। हम इस सोच की न तो पुष्टि कर सकते और न ही किसी ठोस सबूत के बिना इस सोच का समर्थन कर सकते हैं, लेकिन ‘हलाल’ के जरिए जिस तरह देश की आर्थिकी बदल सकती है, वह जरूर चिंताजनक स्थिति है। हर मसले पर हिंदू-मुसलमान करना भी देश के लिए ठीक नहीं है। यह देश सभी भारतीयों का है, सभी का विकास होना चाहिए।

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