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कुपोषण है, तो स्वस्थ कौन ?

शुभकामनाओं और बधाइयों का सैलाब उमड़ आया था। देश के प्रधानमंत्री मोदी का जन्मदिन था। यह भी खुशगवार लगा कि उन्होंने जिंदगी के 75 बसंत जी लिए हैं। बेशक वह अपने कालखंड के सबसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने भारतीय राजनीति की दिशा और दशा बदल दी है। प्रधानमंत्री मोदी एक वैश्विक किरदार में भी हैं। जिन्होंने इस खास मौके पर प्रधानमंत्री का महिमामंडन किया, गरीब बचपन से लेकर देश के सर्वोच्च नेता तक के सफर की कहानियां सुनाईं, यह उनकी मजबूरी और प्रतिबद्धता हो सकती है! बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार के परंपरागत खांचे को तोड़ कर कई अभूतपूर्व फैसले किए। नए प्रतिमान गढ़े। प्रत्येक प्रधानमंत्री के हिस्से ऐसे फैसले और काम आते रहे हैं, लिहाजा उन्हें कुछ मायनों में ‘दूरदर्शी’ भी माना जाता रहा है। यह दीगर है कि कोई उनकी व्याख्या किस तरह करता है। बहरहाल प्रधानमंत्री मोदी ने अपने जन्मदिन का यह नारा तय किया था-‘स्वस्थ नारी, सशक्त परिवार।’ इस आशय के सरकारी विज्ञापन भी मीडिया में छपवाए गए। प्रधानमंत्री ने आह्वान किया कि माताओं, बहनों, बेटियों के स्वास्थ्य की सम्यक जांच कराई जाए। ऐेसे लाखों मेगा स्वास्थ्य शिविर देश भर में 2 अक्तूबर तक चलाए जा रहे हैं। जांच, दवाएं और इलाज सब कुछ निशुल्क होंगे। प्रधानमंत्री ने महिलाओं को सरकारी तिजोरी से बढ़ कर माना है। बेशक पहल और मंशा अच्छी और सामुदायिक है, लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के कुछ निष्कर्ष हमें चिंतित करते हैं, प्रधानमंत्री मोदी को भी चुभेंगे, यदि उनके सामने ये आंकड़े पेश किए जाएंगे। कुपोषण आज भी सामाजिक, आर्थिक, वर्गीय और भयावह समस्या है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक, देश में 15-49 आयु-वर्ग की 57 फीसदी महिलाओं में एनीमिया (खून या हीमोग्लोबिन की कमी) पाया जाता है। 5 साल से कम उम्र के करीब 36 फीसदी बच्चे बौने हैं, 32 फीसदी से ज्यादा बच्चे कम वजन के और 19.3 फीसदी बच्चे शारीरिक-मानसिक रूप से कमजोर हैं। करीब 74 फीसदी आबादी में स्वस्थ, पोषक आहार प्राप्त करने का सामथ्र्य ही नहीं है। उच्च गरीबी दर वाले इलाकों में कुपोषण की दर अधिक पाई गई है। भारत सरकार ने लक्ष्य तय किया था कि 2022 तक देश को कुपोषण-मुक्त बना दिया जाएगा।

ऐसा नहीं हो पाया। यदि नारी और बच्चे ही कुपोषित हैं, तो उनके परिवार, समाज, देश स्वस्थ कैसे हो सकते हैं? देश का विकास सर्वांगीण कैसे हो सकता है? हमारा मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी को इन स्थितियों की जानकारी होगी! प्रधानमंत्री ने अपने जन्मदिन पर ही राष्ट्रीय पोषण मिशन के अगले चरण का शुभारंभ किया है। इसके अलावा, एकीकृत बाल विकास योजना सरीखे कई कार्यक्रम भारत सरकार चला रही है। सवाल है कि कुपोषण रूपी कैंसर कम क्यों नहीं हो पा रहा है? इसके अलावा दिल्ली, हरियाणा, बिहार के लिंगानुपात के आंकड़े खतरे की घंटी बजा रहे हैं। दिल्ली देश की राजधानी है, वहां पिछले साल की जन्म और मृत्यु की सालाना रपट स्पष्ट कर रही है कि जन्म के समय लिंग अनुपात घट रहा है। यह रुझान लगातार चार सालों से सामने आ रहा है। दिल्ली में 2024 में 1000 पुरुषों के पीछे 920 महिलाएं थीं, जबकि यह आंकड़ा 2021 में 932, 2022 में 929 और 2023 में 922 था। बीते साल पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी जन्म के समय महिलाओं की संख्या 910 तक लुढक़ गई। यह आठ सालों में सबसे कम लिंग अनुपात है। बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। लिंग अनुपात एक संवेदनशील चुनावी मुद्दा होना चाहिए था, लेकिन अभी तक किसी भी राजनीतिक दल के प्रचार में इसकी गूंज तक नहीं है। जून में जो डाटा जारी किया गया, वह घोर चिंतित करने वाला है। बिहार में जन्म के समय कन्याओं की संख्या 891 तक गिर गई है, जबकि पहले 964 और 908 के आंकड़े दर्ज किए जा चुके हैं। गौरतलब यह है कि 2011 की जनगणना के दौरान लिंग अनुपात बढ़ता हुआ सामने आया था। तालियां बजाई गईं कि सरकार के प्रयास सफल हो रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का उद्घोष दिया था। मकसद था कि कन्या भ्रूण हत्या पर प्रतिबंध लगे। अब लोग औसतन एक ही बच्चा पैदा कर रहे हैं। जाहिर है कि लैंगिक अनुपात में असंतुलन होगा। प्रधानमंत्री नए सिरे से इस समस्या पर ध्यान दें, तो उनका स्वास्थ्य लक्ष्य ज्यादा सार्थक रहेगा।

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