किसानों का एक और ‘यलगार’

अब बारी महाराष्ट्र के नाराज किसानों की है। राज्य में भाजपा-महायुति सरकार बने 10 माह बीत चुके हैं। किसान अशांत और असंतुष्ट हैं कि चुनाव के दौरान कर्जमाफी, फसलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीद, दिव्यांग किसानों के मानदेय आदि पर जो वायदे किए गए थे, अभी तक अधूरे हैं। उन्हें लागू क्यों नहीं किया जा रहा है? महाराष्ट्र सरकार आर्थिक संकट का रोना रो रही है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने बीती 29 अक्तूबर को तुरंत कर्जमाफी से इंकार कर दिया है। फसल बीमा योजना किसानों को बेवकूफ बना रही है। कंपनियां मालामाल हो रही हैं। राज्य सरकार 1 रुपए की जो ‘प्रतीकात्मक किस्त’ देती थी, उसे भी बंद कर दिया गया है, क्योंकि उससे 5000 करोड़ रुपए की बचत हुई है। लिहाजा किसान एक बार फिर आंदोलित हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के नागपुर में ‘यलगार’ का उद्घोष किया है। करीब 1.5 लाख किसानों ने सडक़ें अवरुद्ध कर चक्का जाम कर दिया है, नतीजतन बॉम्बे उच्च न्यायालय को खुद संज्ञान लेकर आदेश जारी करना पड़ा है कि किसान सडक़ें, राजमार्ग खाली करें। जनता को बहुत असुविधा हो रही है, लेकिन बुधवार रात तक किसान ‘यलगार’ को जारी रखने पर आमादा थे। आंदोलन का नेतृत्व पूर्व मंत्री बच्चू कडू कर रहे हैं, जो ‘प्रहार जनशक्ति पार्टी’ के संस्थापक हैं। सवाल है कि ‘यलगार’ किसानों का है अथवा यह राजनीतिक लामबंदी है? हालांकि राज्य सरकार ने जून, 2025 में कर्जमाफी पर एक कमेटी बनाई थी। उसकी रपट और अनुशंसाएं आ गई हैं अथवा नहीं, यह अभी निश्चित नहीं है। दरअसल बुनियादी मुद्दा किसान की कर्जमाफी का है। केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार ने 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की रूपरेखा के मुताबिक, किसानों के 72,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ किए थे। इस आंकड़े पर विवाद है, क्योंकि मौजूदा प्रधानमंत्री मोदी का दावा है कि कुल 53,000 करोड़ रुपए के कथित कर्ज माफ किए गए। उनमें कई लाभार्थी ‘फर्जी’ थे अथवा कुछ लोग दिवंगत हो चुके थे, लेकिन उनके नाम पर कर्जमाफी की गई। बहरहाल इस आंकड़े को भी छोड़ते हैं, लेकिन उसके बाद कर्जमाफी एक ‘राजनीतिक फैशन’ बन गई, लिहाजा राज्य सरकारों ने भी किसानों के कर्ज माफ किए।
हम आंकड़ों की पुष्टि नहीं कर सकते, लेकिन यह तय है कि कर्जमाफी के तौर पर सरकारें किसानों की आर्थिक मदद करती रही हैं। आखिर किसान कितने कर्जदार हैं, यह यक्ष प्रश्न किया जाता रहा है? अब केंद्र सरकार पर करीब 225 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है, जो 2014 में करीब 58 लाख करोड़ रुपए था। इतनी तो कई देशों की सकल अर्थव्यवस्था नहीं होती। इस गंभीर सवाल को भी समझना चाहिए कि आखिर कब तक सरकारें किसानों की कर्जमाफी करती रहेंगी? महाराष्ट्र सरकार पर भी 2024-25 का कुल कर्ज 8.40 लाख करोड़ रुपए है। सालाना ब्याज करीब 65000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है। हर नागरिक पर 72,761 रुपए का कर्ज है। सरकारों को सिर्फ किसानों का कल्याण देखना है या गरीबी-रेखा के आसपास या उसके तले जीने वाले समुदायों की भी चिंता करनी है? यकीनन किसान के हालात तब से बदतर हैं, जब भारत ब्रिटिश हुकूमत का गुलाम था। किसान की गरीबी या कर्जदारी बीते 11 साल की ही देन नहीं है। ‘किसान अन्नदाता है’, हमें इस मुहावरे को भी छोडऩा होगा। देश के प्रत्येक समुदाय, वर्ग, नागरिक का देश के विकास और संचालन में योगदान रहा है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 15-16 फीसदी ही है। शेष 85 फीसदी के कर्ज कौन माफ करेगा? यदि महाराष्ट्र के नागपुर क्षेत्र के आंकड़े देखें, तो जनवरी-मार्च, 2025 में ही 767 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। पश्चिमी विदर्भ में ही 257 किसानों ने जान दी है। यह देश में किसानों की सर्वाधिक आत्महत्याओं का केंद्र रहा है। आरएसएस का मुख्यालय भी यहीं है, तो केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी का चुनाव क्षेत्र भी नागपुर है और मुख्यमंत्री भी इसी क्षेत्र की विधानसभा सीट से चुन कर आते हैं। बहरहाल केंद्र सरकार से शुरुआत होनी चाहिए, क्योंकि एमएसपी केंद्र ही तय करता है। वहां से कोई सुविचारित पहल की जानी चाहिए। अलबत्ता यह ‘यलगार’ भी दिल्ली के किसान आंदोलन से विराट रूप धारण कर सकता है।




