संपादकीय

’ही मैन’ दिवंगत नहीं

आम आदमी का सुपर स्टार, खूबसूरती का प्रतीक, यूनानी देवता-सा, दिलीप कुमार का ‘ही मैन’, शबाना आजमी का ‘बहुमूल्य मर्द’, जिंदा दिल इनसान, दयालु, ईमानदार, मिलनसार और मददगार आत्मा का प्राणी…ऐसे शख्स का अंत कैसे हो सकता है? वह दिवंगत कैसे हो सकता है? उसके कला-युग का अध्याय समाप्त कैसे माना जा सकता है? बेशक धर्मेन्द्र का पार्थिव शरीर अब हमारे बीच टहलता-घूमता दिखाई न दे, लेकिन 300 से अधिक फिल्मों में उन्होंने जो किरदार निभाए हैं, वे तो अजर, अमर, अनंत हैं। उन्हें दिवंगत कौन और कैसे कर सकता है? धर्मेन्द्र उस दौर में फिल्मों में आए, जब दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद, राजकुमार आदि अभिनेताओं का वर्चस्व था। लोग उनके अभिनय के कायल थे। वे जीवंत कथानक थे, जिनके इर्द-गिर्द फिल्में बुनी जाती थीं। धरम जी ने उनके बीच ‘बंदिनी’, ‘सत्यकाम’, ‘अनुपमा’, ‘फूल और पत्थर’ सरीखी फिल्मों के जरिए अपना स्थान बनाया। धर्मेन्द्र को नाचना नहीं आता था अथवा यूं कहा जाए कि उनके नृत्य की शैली और अंदाज निराले थे। लगभग अमिताभ बच्चन की तर्ज पर…! देश के आम आदमी और दर्शक ने उसी रूप में धर्मेन्द्र को स्वीकार किया, मान्यता दी और सुपर स्टार बनाया। राजेश खन्ना बॉलीवुड के प्रथम सुपर स्टार घोषित किए गए। धर्मेन्द्र तब भी प्रासंगिक बने रहे। छह दशकों से लंबे करियर में उन्होंने 32 फिल्में स्वर्ण जयंती और 107 फिल्में रजत जयंती वाली दीं। यानी एक साथ 25 और 50 सप्ताह फिल्म, एक ही थियेटर में, चला करती थी। आज वह चलन और स्थायित्व लगभग समाप्त हो चुका है। अमिताभ बच्चन के ‘यंग एंग्रीमैन’ का जादू सिने दर्शकों पर छाने लगा था, तो वह ‘सदी के महानायक’ बन गए, लेकिन आम आदमी और दर्शकों के महानायक, सही मायनों में, धर्मेन्द्र ही बने रहे। उनके अभिनय और किरदारों के आयाम इतने व्यापक और विविध थे कि क्या ऐसा कलाकार कभी दिवंगत हो सकता है? धर्मेन्द्र ने परदे पर 10-15 गुंडों की एक साथ धुनाई की, तो वह यथार्थ लगा। दर्शक को एहसास होता था कि ‘ही मैन’ ऐसी पिटाई कर सकता है।

उन्होंने संजीदा भूमिकाएं भी निभाईं और आंखों में आंसू भी दिखे। वह आशिक मिजाज भी थे, लिहाजा उनके रोमांटिक किरदार भी प्रेम करते लगते थे। धरम जी कई बार ‘इंडियन आइडल’ के मंच पर आए। उस दौरान उनका शायराना किरदार भी सामने आया। धर्मेन्द्र की कॉमेडी बड़ी सहज, सरल, गुदगुदा देने वाली होती थी। इस संदर्भ में कोई भी ऋषिकेश दा’ की फिल्म ‘चुपके-चुपके’ के परिमल त्रिपाठी को भूल नहीं सकता। यकीनन धर्मेन्द्र का फिल्मी करियर बहुआयामी था। क्या ऐसा व्यक्तित्व दिवंगत हो सकता है? मानव शरीर क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा इन पंचतत्त्वों का बना है। उनका दाह-संस्कार कर दिया गया, लेकिन एक कलाकार की कला के जो साक्ष्य आज भी हमारे साथ हैं, वह कैसे मर सकता है? जिस तरह वह पंजाब के एक छोटे-से गांव से आकर बॉलीवुड में स्थापित हुए थे और एक युग के रचनाकार बन गए थे, उसी तरह धर्मेन्द्र युवा पीढ़ी के पंजाबियों के सपनों को बखूबी जानते थे, लिहाजा उनका घर उन स्वप्नजीवियों का भी ‘मिनी पंजाब’ होता था। एक महानगर में एक छत, आवास, खान-पान और सोने को बिस्तर धरम जी ने न जाने कितनों को मुहैया कराए। वे संघर्ष के दौर के बाद अभिनेता भी बने, लेकिन धरम जी घर के बुजुर्ग की छाया सरीखे बने रहे। निश्चित रूप से वह किसी भी तरह के अहंकार से परे, सिर्फ मानवीय थे। बेशक आज वह पार्थिव तौर पर दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन आज हमें गम नहीं करना चाहिए। यह उत्सव, समारोह का समय है। धरम जी ने 89 लंबे सालों की भरी-पूरी जिंदगी जी। भरा-पूरा परिवार है। एक अविस्मरणीय विरासत है, लेकिन उन चेहरों पर, उनके विवेक पर, कोफ्त होती है, जिन्होंने धर्मेन्द्र को ‘दादा साहब फाल्के सम्मान’ के लायक नहीं समझा। यह फिल्मी सर्वोच्च सम्मान उन्हें 10-15 साल पहले ही मिल जाना चाहिए था। उन्हें किसी भी किरदार के लिए ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ भी नहीं दिया गया। अलबत्ता ‘जीवन भर की उपलब्धियों के लिए फिल्म फेयर अवार्ड’ जरूर दिया गया। धरम जी को क्या फर्क पड़ता था। उनके सम्मान तो करोड़ों दर्शक थे। बहरहाल, उन्हें श्रद्धांजलि।

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