‘वंदे मातरम्’ पर रोक क्यों?

संसद का शीतकालीन सत्र आरंभ हो गया है। 19 दिसंबर तक जितनी भी बैठकें होंगी, उनमें हंगामा होता रहेगा, नारेबाजी भी की जाएगी, लेकिन संसदीय सौहार्द और सह-अस्तित्व दिखाई नहीं देगा। अब इस स्थिति पर चिंता नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यह हमारी संसदीय संस्कृति बन चुकी है। मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर), उसके दबाव और तनाव, उसमें निहित राजनीति, बीएलओ की आत्महत्याओं के सच पर चर्चा होनी चाहिए, क्योंकि यह राष्ट्रीय और मानवीय मुद्दा बन गया है। चुनाव आयोग की हड़बडिय़ों और तानाशाह रवैये पर भी संसद के भीतर बहस होनी चाहिए। फिर प्रधानमंत्री या गृहमंत्री बहस में उठाए गए सवालों के जवाब दें। एसआईआर से जुड़े मुद्दों पर विमर्श बेमानी भी है, क्योंकि सरकार ही स्पष्ट नहीं है कि देश में कितने घुसपैठिए हैं, कहां-कहां हैं, कौन घुसपैठिए हैं? सरकार के पास या तो कोई ठोस डाटा ही नहीं है अथवा वह देश को बताने में हिचक रही है? हमें इस संसद सत्र के संदर्भ में सबसे आपत्तिजनक, असंसदीय और असंवैधानिक यह लगता है कि राज्यसभा ने ‘वंदे मातरम्’ और ‘जयहिंद’ सरीखे शब्दों, नारों पर परामर्श जारी किया है। परोक्ष रूप से सांसद सदन के भीतर ये नारे न बोलें। इनके साथ बचाव की मुद्रा के लिए ‘थैंक्स’, ‘थैंक यू’ आदि शब्दों पर भी परोक्ष रोक लगाई गई है। संसद के भीतर ऐसी पाबंदीनुमा व्यवस्था की नौबत ही क्यों आई? राज्यसभा सचिवालय का स्पष्टीकरण है कि ऐसा सदन की मर्यादा और गंभीरता के मद्देनजर करना पड़ा। दरअसल यह संवैधानिक उल्लंघन है, क्योंकि 1950 में संविधान सभा ने ‘वंदे मातरम्’ को ‘राष्ट्र-गीत’ के तौर पर स्वीकार किया था। आज भी मंत्रिमंडल का शपथ-ग्रहण हो अथवा संसद सत्र की कार्यवाही समाप्त होती है, तो सदन में ‘वंदे मातरम्’ का गायन बजाया जाता है। यह दीगर है कि सपा के कुछ इस्लामी मानसिकता के सांसद ‘वंदे मातरम्’ के दौरान ही बहिर्गमन कर जाते हैं।
बेशक उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। दरअसल ‘वंदे मातरम्’ और ‘जयहिंद’ महज नारे ही नहीं हैं, बल्कि हमारी आजादी की लड़ाई, क्रांतियों, कुर्बानियों के उद्घोष भी हैं। कमोबेश इन उद्घोषों ने ऐसी ‘स्वदेशी प्रेरणा’ फूंकी थी कि मदनलाल ढींगरा जैसे क्रांतिवीर ‘वंदे मातरम्’ गाते-गाते फांसी के फंदे पर झूल गए थे। तिलक और गोखले सरीखे राष्ट्र-नायकों ने ‘वंदे मातरम्’ का उद्घोष किया और आजादी के संघर्ष में कूद पड़े। बेशक बंगाल के प्रख्यात लेखक बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 7 नवंबर, 1875 को इस गीत का सृजन किया, जो तत्कालीन ‘बंग दर्शन’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। 1882 में बंकिम ने ‘आनंद मठ’ उपन्यास में इसे संकलित किया। परम आदरणीय गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने 1896 में, कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के दौरान, इस गीत को गाया। उसके बाद पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान यह गीत क्रांतिवीरों, सेनानियों के लिए उत्प्रेरक बना रहा। उन्हें संघर्ष का साहस दिया, मातृभूमि की चांदनी रात, फूलों की सुगंध, मलयज वायु और उस भारत माता की रक्षा का दायित्व याद दिलाता रहा। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘वंदे मातरम्’ के कुल छह छंदों में से चार को काट देने पर आपत्ति जताई है और सवाल उठाया है। हालांकि यह काटा-छांटी 1937 में की गई थी, जब भारत गुलाम देश था। तब ब्रिटिश दरबार में कांग्रेस की कितनी सुनी जाती थी, यह देश अच्छी तरह जानता है।




