संपादकीय

चुनाव सुधार अर्थात ‘वोट चोरी’

लोकसभा में चुनाव सुधार के मुद्दे पर बहस हुई, लेकिन कोई सुधार या संवैधानिक संशोधन सामने नहीं आया। सरकार की ओर से भी कोई प्रस्ताव नहीं रखा गया कि अमुक सुधार किए जा सकते हैं। यह विशुद्ध रूप से राजनीतिक बहस थी। चुनाव सुधार की आड़ में ‘वोट चोरी’ का आरोप संसद के भीतर गूंजता रहा। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने भाजपा और चुनाव आयोग की मिलीभगत, सांठगांठ से चुनाव जीते जाने का बेहद गंभीर आरोप चस्पां किया। उन्होंने मौजूदा चुनाव आयुक्तों को लगभग धमकी दी कि जब हम सत्ता में आएंगे, तो आपको ढूंढ कर दंडित किया जाएगा, क्योंकि ‘वोट चोरी’ के जरिए आपने ‘लोकतंत्र-चोरी’ का काम कराया है। नेता प्रतिपक्ष ने इस कानूनी संशोधन पर भी सवाल उठाया है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति तय करने वाले पैनल में से देश के प्रधान न्यायाधीश को क्यों हटाया गया? चुनाव आयुक्तों के किसी भी फैसले अथवा काम के मद्देनजर उन्हें इम्युनिटी, कानूनी छूट, क्यों दी गई है? उनके खिलाफ कोई भी कानूनी केस दायर क्यों नहीं किया जा सकता? सीसीटीवी की फुटेज चुनाव प्रक्रिया सम्पन्न होने के 45 दिन बाद नष्ट क्यों की जाए? यह कानून गलत और भ्रामक है। नेता प्रतिपक्ष कांग्रेसी सत्ता के इतिहास को नहीं जानते, जब सरकार, यानी प्रधानमंत्री ही, मुख्य चुनाव आयुक्त का चयन और नियुक्ति करते थे। बाद में उन्हें मंत्री भी बना दिया जाता था अथवा किसी उच्च ओहदे पर बिठा दिया जाता था। तब सत्ता न तो संसद और न ही देश के प्रति जवाबदेह होती थी। तब नेता प्रतिपक्ष को इतना भी अधिकार नहीं था कि वह अपनी ‘असहमति’ जता सकता। कमोबेश आज प्रधानमंत्री, एक कैबिनेट मंत्री और नेता प्रतिपक्ष के चयन-पैनल में विपक्ष का प्रतिनिधि अपनी असहमति का नोट तो दर्ज करा सकता है।

कांग्रेस के ही वरिष्ठ सांसद मनीष तिवारी ने व्याख्या की कि एक साथ कई राज्यों में या एक ही पूर्ण राज्य में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) नहीं कराया जा सकता। चुनाव आयोग को यह संवैधानिक अधिकार प्राप्त है कि जहां उसे मतदाता सूची में विसंगति लगे, वह उसी क्षेत्र में एसआईआर का अभियान शुरू कर सकता है। यह बहस सर्वोच्च अदालत में भी उभर कर सामने आई है। एसआईआर को देश के ‘जनप्रतिनिधित्व कानून’ का उल्लंघन करार दिया गया है। आज 2025 में कई राज्यों में मतदाताओं से पूछा जा रहा है कि उनका नाम 2003 की मतदाता सूची में था अथवा नहीं। अर्थात् मतदाता को पुष्टि करनी है कि अतीत में वह मतदाता रहा था। दरअसल मतदाताओं को न तो पुरानी मतदाता सूची उपलब्ध है और न ही चुनाव आयोग के पोर्टल और वेबसाइट काम कर रहे हैं। यह पुष्टि देश का औसत मतदाता कैसे कर सकता है? 2003 या इतने पुराने मतदाता की पुष्टि सिर्फ चुनाव आयोग ही कर सकता है, क्योंकि उसके पास तमाम रिकॉर्ड हैं और वह मतदान कराता आया है। लिहाजा सर्वोच्च अदालत में वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने एसआईआर को एक ‘असंवैधानिक प्रक्रिया’ करार दिया है। सर्वोच्च अदालत को इस संदर्भ में अपनी व्याख्या देनी है। चूंकि संसद में ‘वोट चोरी’ का गंभीर आरोप गूंजा है, लिहाजा सवाल है कि उसका जवाब कौन देगा? चुनाव आयोग संसद में आकर जवाब दे नहीं सकता। हालांकि कुछ मसलों पर चुनाव आयोग को जवाब देना है।

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