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कैसे रुकेगी रुपए की गिरावट?

लंबी अवधि में विदेशी निवेशकों के लिए रुपए का गिरना फायदेमंद हो सकता है क्योंकि इससे उनकी रिटर्न रुपए में बदलने पर बढ़ जाती है। लेकिन निकट अवधि में दबाव बना रह सकता है। वैश्विक वित्तीय हालात, महंगा आयात और व्यापार से जुड़ी चुनौतियां रुपए को कमजोर बनाए रख सकती हैं…

भारतीय रुपए में गिरावट चर्चा का विषय बना हुआ है। भारतीय रुपया हाल के दिनों में डॉलर के मुकाबले लगातार कमजोर हो रहा है। 11 दिसंबर 2025 को यह 90.51 के स्तर पर पहुंच गया, जो एक साल पहले के 84.85 के स्तर से करीब 7 फीसदी की गिरावट दर्शाता है। यह गिरावट केवल आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि आम आदमी की जेब पर सीधा असर डाल रही है। अमेरिकी टैरिफ, विदेशी निवेश में कमी और वैश्विक आर्थिक अनिश्चितताओं के कारण रुपया दबाव में है। रुपए की गिरावट का एक काला अतीत भी है। भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 90.63 के अपने अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है। इसी बीच भारत के आर्थिक इतिहास के एक और भी बुरे दौर की यादें ताजा हो गई हैं। ऐसा पहली बार नहीं है जो भारत को करेंसी शॉक का सामना करना पड़ रहा है। भारत को सबसे बड़ा झटका 1991 में लगा था, जब देश दिवालिया होने की कगार पर था।

उस साल रुपए का संकट इतना गहरा था कि भारत को बचने के लिए अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था। 1991 में भारत ने अपने अब तक के सबसे बुरे बैलेंस ऑफ पेमेंट्स संकट का सामना किया। विदेशी मुद्रा भंडार खतरनाक रूप से कम हो गया था। यह तेल और भोजन जैसे जरूरी आयात के लिए भी मुश्किल से दो या तीन हफ्तों के लिए ही बचा था। अंतरराष्ट्रीय कर्जदाताओं का भरोसा खत्म हो चुका था। क्रेडिट रेटिंग्स गिर चुकी थी और भारत अपने बाहरी कर्ज की देनदारी पर डिफॉल्ट करने के करीब था। इस संकट की जड़ें सालों से गलत तरीके से आर्थिक प्रबंधन करने के साथ-साथ वैश्विक झटकों में थी। भारत जीडीपी के 8 फीसदी से ज्यादा का भारी राजकोषीय घाटा चला रहा था। उसी समय विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घट रहा था। 1990-91 के खाड़ी युद्ध ने कच्चे तेल की कीमतों को तेजी से बढ़ा दिया था, जिस वजह से भारत का आयात बिल बढ़ गया। इसी के साथ मध्य पूर्व में काम करने वाले भारतीयों से आने वाला पैसा भी कम हो गया। 1989 और 1991 के बीच राजनीतिक अस्थिरता ने विदेशी निवेशकों को और भी ज्यादा डरा दिया, जिस वजह से पूंजी पलायन हुआ। जब कोई रास्ता नहीं बचा तो सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया। मई और जुलाई 1991 में भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान के पास लगभग 67 टन सोना गिरवी रखा। इस कदम से भारत को आपातकालीन फंड के रूप में लगभग $600 मिलियन जुटाने में मदद मिली। उस समय सोने को कड़ी सुरक्षा के बीच देश से बाहर ले जाया गया था। सरकार के इस कदम ने भारत को पूरी तरह से डिफॉल्ट होने से रोक दिया था। सोना गिरवी रखने के साथ-साथ भारत ने वित्तीय सहायता के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से संपर्क किया।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष बेलआउट पैकेज देने पर सहमत हो गया, लेकिन उसने कड़ी शर्तें लगाई। इनमें संरचनात्मक सुधार, राजकोषीय अनुशासन, व्यापार उदारीकरण और मुद्रा का डीवैल्युएशन शामिल था। प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह की लीडरशिप में ऐतिहासिक सुधार हुए। भारत ने लाइसेंस राज को खत्म किया, आयात शुल्क कम किए, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए दरवाजे खोले और साथ ही खुद को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ मिलाया। आइये रुपए की इस गिरावट के चक्रव्यूह को समझने की कोशिश करें। रुपया और डॉलर का रेट तय होने का भी एक बाजार है, जिसे फॉरेक्स मार्केट कहते हैं। यहां बैंक, बड़ी कंपनियां और निवेशक डॉलर खरीदते-बेचते हैं। जब डॉलर की मांग ज्यादा होती है और बाजार में डॉलर कम मिलते हैं, तो डॉलर महंगा और रुपया सस्ता हो जाता है। भारत ज्यादा आयात करे और निर्यात कम हो, तो हमें डॉलर में ज्यादा भुगतान करना पड़ता है, मांग बढ़ती है और रुपया टूटता है। अगर अमेरिका में ब्याज दरें ऊंची हों, तो विदेशी निवेशक वहां पैसा लगा देते हैं, भारत से डॉलर निकलते हैं और रुपया कमजोर होता है। कच्चे तेल की कीमतें बढ़े तो भी भारत को ज्यादा डॉलर देने पड़ते हैं, इससे भी रुपया दबाव में आता है। निर्यात, विदेशी निवेश, एनआरआई की रेमिटेंस वगैरह के जरिये अगर भारत में ज्यादा डॉलर आते हैं तो रुपया मजबूत होता है। इसकी उलट स्थिति यानी ज्यादा आयात, विदेशी निवेशकों का भारतीय कंपनियों से निवेश वापस खींचने जैसी स्थितियों में रुपया कमजोर होता है।

भारत पेट्रोल-डीजल और रसोई के तेल से लेकर मोबाइल, टीवी, मशीनरी जैसे सामानों और बहुत कुछ का आयात करता है। रुपया कमजोर होते ही इन्हें खरीदने के लिए ज्यादा रुपए देने पड़ते हैं। इसलिए पेट्रोल-डीजल, गैस, हवाई टिकट, इलेक्ट्रॉनिक्स, इंपोर्टेड दवाएं और गाडिय़ां महंगी होने लगती हैं। जब ईंधन महंगा होता है तो जाहिर है कि ट्रक-ट्रांसपोर्ट का किराया बढ़ता है और फिर उसका असर सब्जी, अनाज, दूध, पैकेज्ड फूड जैसी रोजमर्रा की जरूरत वाली चीजों की कीमत पर भी पड़ता है, यानी महंगाई बढ़ती है। इसके अलावा विदेश में पढ़ाई, इलाज या घूमने के लिए विदेश जाने वालों पर असर और साफ दिखता है। ट्यूशन फीस, हॉस्टल, टिकट सब डॉलर में तय होते हैं, इसलिए रुपया गिरने पर सेम कोर्स की फीस, भारतीय परिवारों को लाखों रुपए ज्यादा लगती है। विदेश से ऑनलाइन शॉपिंग, ऐप सब्सक्रिप्शन जैसी सेवाएं भी धीरे-धीरे महंगी लगने लगती हैं। रुपया गिरने से सभी को नुकसान ही नहीं होता, कुछ निर्यातकों को फायदे भी होते हैं। जो कंपनी या एक्सपोर्टर विदेश में सामान बेचते हैं, उन्हें अगर डॉलर में पेमेंट मिलता है, तो वे रुपया गिरने की स्थिति में भी फायदे में होते हैं। विदेशों से पेमेंट में मिले डॉलर को जब वे रुपए में बदलते हैं तो उन्हें पहले से ज्यादा रुपए मिलते हैं। टेक्सटाइल, आईटी सर्विस, फूड प्रोसेसिंग जैसे सेक्टर को इसमें थोड़ी बढ़त मिलती है। भारतीय रुपए में मौजूदा गिरावट के पीछे कई बड़े कारण जिम्मेदार हैं, जिनमें वैश्विक आर्थिक स्थितियां और घरेलू कारक शामिल हैं। रुपए की गिरावट के कारणों, भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसके प्रभावों और क्या यह चिंता का विषय होना चाहिए, इस बार भारतीय रिजर्व बैंक का हस्तक्षेप भी काफी कम रहा है, जिससे गिरावट और तेज हुई है। आरबीआई की पॉलिसी आने वाली है और बाजार को उम्मीद है कि केंद्रीय बैंक करेंसी को स्थिर करने के लिए कुछ कदम उठाएगा। तकनीकी रूप से रुपया बहुत ज्यादा ओवरसोल्ड हो चुका है। डॉलर की तुलना में किसी भी अन्य करेंसी की वैल्यू घटने को मुद्रा का गिरना, टूटना या कमजोर होना कहते हैं।

इसे अंग्रेजी में करेंसी डेप्रिसिएशन कहा जाता है। लंबी अवधि में विदेशी निवेशकों के लिए रुपए का गिरना फायदेमंद हो सकता है क्योंकि इससे उनकी रिटर्न रुपए में बदलने पर बढ़ जाती है। लेकिन निकट अवधि में दबाव बना रह सकता है। वैश्विक वित्तीय हालात, महंगा आयात और व्यापार से जुड़ी चुनौतियां रुपए को कमजोर बनाए रख सकती हैं। हकीकत यह है कि महंगाई के आंकड़े कुछ भी कहें वास्तविक जीवन में महंगाई लोगों की कमर तोड़ रही है। निर्यात करने वालों को जरूर डॉलर में पैसे मिलने से फायदा हो रहा है, लेकिन वह फायदा तो चुनिंदा लोगों को है। हर देश के पास फॉरेन करेंसी रिजर्व होता है, जिसका उपयोग वह अंतरराष्ट्रीय लेन-देन के लिए करता है। इस रिजर्व के घटने या बढऩे का असर करेंसी की कीमत पर सीधा दिखता है। यदि भारत के फॉरेन रिजर्व में डॉलर, अमेरिका के रुपए के भंडार के बराबर होगा, तो रुपए की कीमत स्थिर रहेगी। लेकिन यह नामुमकिन तो नहीं, मुश्किल जरूर है।-डा. वरिंद्र भाटिया

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