‘इंडिया’ अस्तित्व में या नहीं?

बिहार में करारी पराजय के बाद विपक्ष एक बार फिर विभाजित होता लग रहा है। ‘इंडिया’ ब्लॉक अथवा महागठबंधन कभी अस्तित्व में थे अथवा नहीं, यह भी स्पष्ट नहीं है, क्योंकि उनके घटक दल एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते रहे हैं। बिहार इसका ताजातरीन उदाहरण है। अब दो विरोधाभासी बयान सामने आए हैं। एक तो ‘इंडिया’ गठबंधन को लेकर है कि अब उसकी कोई जरूरत नहीं है, लिहाजा कांग्रेस ने राजद और सपा से अलग होने की घोषणा की है। जिन सूत्रों से यह खबर सार्वजनिक हुई, उनका दावा है कि यह खुद गांधी परिवार का निर्णय है। लेकिन कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने इस निर्णय का खंडन किया है। अलबत्ता यह घोषणा जरूर की गई है कि पश्चिम बंगाल, असम के चुनाव में कांग्रेस ‘एकला’ ही लड़ेगी। केरल में न तो ‘इंडिया’ था और न ही गठबंधन संभव है, क्योंकि वहां कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल है और 10 साल से सत्ता के बाहर है। वाममोर्चा सरकार में है। तमिलनाडु में भी चुनाव 2026 के अप्रैल-मई में होने हैं। अभी तक द्रमुक सरकार के सहारे कांग्रेस सत्ता में भागीदार है। नए समीकरणों की फिलहाल कोई घोषणा नहीं है। कांग्रेस बीते 58 साल से तमिलनाडु में अपना मुख्यमंत्री निर्वाचित नहीं करा पाई है। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस आधी-अधूरी ही ‘इंडिया’ गठबंधन में है। वह इस गठबंधन के घटक होने का दावा तो करती रही है, लेकिन कांग्रेस सरीखे प्रमुख घटक दल के साथ गठबंधन नहीं करती। दोनों संसदीय और विधानसभा चुनाव अलग-अलग लड़ते हैं। इस बार भी गठबंधन के कोई आसार नहीं हैं, क्योंकि अब कांग्रेस ‘एकला’ ही अपनी राजनीतिक लड़ाई लडऩे के मूड में है या उसकी राजनीतिक बाध्यता है। सवाल है कि जब ऐसी स्थिति है, तो बिहार की पराजय के बाद ममता बनर्जी के चंपुओं ने यह शोर मचाना क्यों शुरू किया कि ममता को ‘इंडिया’ गठबंधन का नेतृत्व सौंपना चाहिए। एक और आवाज उप्र से गूंजने लगी है कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को ‘इंडिया’ ब्लॉक का प्रमुख चुनना चाहिए। उप्र में 2027 में विधानसभा चुनाव हैं।
लोकसभा में भाजपा के 240 और कांग्रेस के 99 सांसदों के बाद सपा 37 सांसदों वाली तीसरी बड़ी पार्टी है। उप्र में 1989 और बंगाल में 1977 के बाद कांग्रेस सत्ता में नहीं है, लेकिन ‘इंडिया’ गठबंधन का आकलन किया जाए, तो कांग्रेस के बिना विपक्षी गठबंधन के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। कांग्रेस बनाम सपा, तृणमूल, द्रमुक के दरमियान, निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के आधार पर, फासले बेहद व्यापक हैं। यदि ‘इंडिया’ के अस्तित्व को बरकरार रखना है, तो कांग्रेस के नेतृत्व को नकारना असंभव है। फिर वह नेतृत्व मल्लिकार्जुन खडग़े का हो अथवा राहुल गांधी का हो! दरअसल कांग्रेस ही ‘इंडिया’ गठबंधन की बुनियाद है। उसकी अपनी तीन राज्य सरकारें हैं और 650 से अधिक विधायक हैं। लोकसभा में कांग्रेस के 99 सांसदों के योगदान से ही विपक्षी गठबंधन के सांसदों की संख्या 234 तक पहुंच पाई है, नतीजतन राहुल गांधी नेता प्रतिपक्ष हैं। भारत में विपक्षी गठबंधन का कोई भी प्रयोग सफल नहीं रहा है। वह टूटने के लिए बनता रहा है। चूंकि गठबंधन बना है, लिहाजा टूटना उसकी नियति है। गठबंधन का सफलतम प्रयोग जनता पार्टी का रहा। समूचे विपक्षी दलों के आपसी विलय के बाद ‘जनता पार्टी’ का स्वरूप सामने आया था, लेकिन वह भी पौने तीन साल के बाद टूट गया। गठबंधन के कारण वीपी सिंह, देवेगौड़ा, इंदर कुमार गुजराल आदि ‘अल्पकालिक प्रधानमंत्री’ जरूर बने, लेकिन उनकी सरकारें एक साल भी नहीं चल सकीं। देवेगौड़ा और गुजराल सरकारों को तो कांग्रेस बाहर से समर्थन दे रही थी। केंद्र के स्तर पर यूपीए गठबंधन इसलिए लगातार 10 साल सत्ता में रहा, क्योंकि कांग्रेस ही गठबंधन की बुनियाद थी। वामपंथी दलों और अन्य पार्टियों ने उसके साथ गठबंधन किया था। यही प्रयोग अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में किया गया, जब अन्य दलों ने भाजपा के साथ गठबंधन बनाया और उसे एनडीए नाम दिया गया। वह गठबंधन आज भी कई राज्यों और केंद्र सरकार में है। बहरहाल आज ‘इंडिया’ ब्लॉक या कोई और गठबंधन जिंदा रखना है, तो कांग्रेस को खुले मन से और हर चुनाव के स्तर पर स्वीकार करना होगा। कांग्रेस के बिना विपक्ष का मोर्चा बनाना संभव भी नहीं है। आखिर कांग्रेस सबसे पुरानी पार्टी के साथ-साथ राष्ट्रीय पार्टी भी है। चुनाव में भले ही उसे हार का सामना करना पड़ा है, लेकिन अब भी वह राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर पहचान बनाए हुए है।




