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एआई को सबकी सेवा योग्य बनाना सबसे बड़ी चुनौती

कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी एआई ने आधुनिक युग की आधारभूत वैज्ञानिक क्रांति को एक नई प्रगति दी है। यह न केवल व्यवसाय, उद्योग, स्वास्थ्य, शिक्षा व दैनिक जीवन को प्रभावित कर रहा है, बल्कि मानवीय अवधारणाओं व सामाजिक संरचना को भी नए सिरे से परिभाषित कर रहा है…

कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी एआई ने आधुनिक युग की आधारभूत वैज्ञानिक क्रांति को एक नई प्रगति दी है। यह न केवल व्यवसाय, उद्योग, स्वास्थ्य, शिक्षा व दैनिक जीवन को प्रभावित कर रहा है, बल्कि मानवीय अवधारणाओं व सामाजिक संरचना को भी नए सिरे से परिभाषित कर रहा है। व्यावसायिक रूप से एआई का वैश्विक बाजार मूल्य साल 2024-25 तक लगभग 1.8 ट्रिलियन डॉलर पहुंच चुका है, और इसकी सार्वभौमिकता, अर्थात हर देश और क्षेत्र में इसकी स्वीकार्यता दिखाई दे रही है। फिर भी, एआई की वैश्विक स्वीकृति को गंभीर विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

एआई की सार्वभौमिकता का सबसे बड़ा विरोध उसके अंतर्निहित पूर्वाग्रहों को लेकर दिख रहा है। दरअसल, एआई सिस्टम पूरी तरह से डाटा पर आधारित व प्रशिक्षित होते हैं, जो प्रायः पश्चिमी और व्यावसायिक या धनाढ्य वर्गों से प्रभावित होते हैं। उनके विचार या निर्णय पूर्ण रूप से लाभपरक होते हैं, जो समाज के अनेक वर्गों या अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति भेदभाव की दृष्टि को बढ़ावा देते हैं। इसे एक उदाहरण से समझें। ‘चेहरे की पहचान’ एक तकनीक है, जो डाटा सुरक्षा में प्रयोग की जाती है, इस तकनीक में अश्वेत लोगों की सटीकता केवल 34 प्रतिशत पाई जाती है, जबकि श्वेत लोगों में यह 99 फीसदी है। यह पूर्वाग्रह न्यायिक, सामाजिक और आर्थिक असमानता को जन्म देता है। यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, एआई को बिना नैतिक संरक्षण के यदि प्रयोग में लाया जाता है, तो यह जलवायु संकट, मानवाधिकार हनन और सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों को बढ़ावा दे सकता है।

‘प्यू रिसर्च सेंटर’ ने इसी वर्ष के अपने एक सर्वेक्षण में पाया कि विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोगों ने एआई को स्वास्थ्य एवं उत्पादकता के लिहाज से तो सकारात्मक माना, लेकिन ज्यादातर लोगों ने अपनी गोपनीयता के लिए इसे प्रमुख खतरे के रूप में स्वीकार किया। वैश्विक स्तर पर, यह विरोध सांस्कृतिक विविधता को प्रभावित करता है। एआई जनित उत्तर या निष्कर्ष प्रायः पश्चिमी संदर्भों से प्रभावित होते हैं, जिससे विकासशील देशों में सांस्कृतिक विनाश और तथ्यों के विरोधाभास का डर उत्पन्न होता है। ये सीमाएं एआई को सार्वभौमिक बनाने की कोशिशों को प्रभावित करती हैं, क्योंकि एक ही मॉडल या दिशा-निर्देश सभी संस्कृतियों और सभ्यताओं के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं हो सकता।

एआई की स्वीकृति समाज को आर्थिक रूप से सर्वाधिक प्रभावित कर रही हैं। मैकिन्से की 2025 की ग्लोबल सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, एआई से 2030 तक दुनिया भर में 80 करोड़ नौकरियां सीधे तौर पर प्रभावित होंगी, जिनसे विकासशील देशों का असंगठित क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित होगा। यह समाज में न केवल बेरोजगारी का स्तर बढ़ा सकता है, बल्कि सामाजिक असंतोष भी पैदा कर सकता है। उदाहरण के तौर पर, 2024 में अमेरिका व यूरोप में एआई-चालित ऑटोमेशन के खिलाफ खूब हड़तालें हुईं, जहां कामगारों ने एआई की सुलभता को ‘नौकरी चोर’ की संज्ञा दी। भारत जैसे राष्ट्र में, जहां 90 प्रतिशत श्रम अब भी असंगठित है, एआई की सार्वभौमिकता डिजिटल उपनिवेशवाद का स्वरूप धारण कर सकती है, जिसका परिणाम यह होगा कि धनी राष्ट्रों की तकनीक व नीतियां विकासशील राष्ट्र की अर्थव्यवस्थाओं को नियंत्रित व उनके विकास को निर्धारित करेंगी। एआई के इस्तेमाल से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान वैश्विक सहयोग में निहित है। पारदर्शिता, मानव निगरानी व सतत मूल्यांकन ही इसके नियंत्रण का एकमात्र साधन है। इनमें ‘रेडीनेस असेसमेंट मेथडोलॉजी’ (आरएएम) एक प्रमुख अंग है।

एआई की सार्वभौमिकता और स्वीकृति वैश्विक चुनौतियों से घिरी हुई है, लेकिन ये विरोध विकासशील देशों को प्रगति के अवसर भी दे रहे हैं। ऐसे में, इसके पूर्वाग्रहों, इसकी असमानता और इसके विरोधाभास को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय एकजुटता अनिवार्य है। यदि हम नैतिक संरचना, समावेशी शासन और सतत विकास पर ध्यान केंद्रित करें, तो एआई विश्व मानवता के लिए वरदान सिद्ध हो सकता है, अन्यथा यह विभाजन और संघर्ष का कारण बनेगा।-किंशुक पाठक

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