संपादकीय

एसआईआर एक घातक ड्रामा

क्या संसद में भी ‘ड्रामा’ होता है? बेशक हमने संसद के भीतर हंगामे, हुल्लड़बाजी, आसन की ओर किताब फेंकना या सभापति का माइक तोडऩे की कोशिश करना, मेज पर चढ़ कर नृत्य करना आदि अराजकताएं और अनुशासनहीनता तो देखी हैं। वे शाश्वत हैं, क्योंकि विपक्ष ऐसा ही व्यवहार करता रहा है। यही उसकी संवैधानिकता मान ली गई है। भाजपा बिल्कुल भी अछूती नहीं है। संसद में हंगामा और कई-कई दिनों तक कार्यवाही को बाधित करने के उसके भी कीर्तिमान दर्ज हैं। चूंकि प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्ष को निशाना बनाते हुए, उस पर तंज करते हुए, कहा है कि संसद ड्रामा की जगह नहीं है। ड्रामे के लिए पूरा देश खाली पड़ा है। संसद में तो ‘डिलीवरी’ होनी चाहिए। हम भी मानते हैं कि संसद में राष्ट्र-निर्माण के निर्णय लिए जाने चाहिए, लेकिन 12 मिनट में 4 विधेयक पेश कर दिए जाएं और एक पारित भी कर लिया जाए, तो यह कौन-सा ड्रामा है? याद करें, संसद के मानसून सत्र के दौरान करीब 15 मिनट में 12 बिल पारित कर लिए गए थे। ऐसा कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान भी होता रहा है, जब मिनटों में ही बिल पारित कर लिए गए। इस ‘हम्माम’ में सभी मौजूद हैं। कमोबेश यह संसदीय प्रणाली नहीं, संसद के नाम पर ‘ड्रामा’ है। संसद पक्ष-विपक्ष की आपसी विरोधी चर्चाओं, आरोपों-प्रत्यारोपों का सबसे बड़ा, गणतांत्रिक मंच है, क्योंकि सभी निर्वाचित सांसद होते हैं। प्रधानमंत्री भी पूरे देश के, विपक्ष के भी, प्रधानमंत्री हैं, लिहाजा उन्हें निर्वाचित सांसदों के लिए गरिमामय, शालीन, सौम्य, संसदीय भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए।

‘ड्रामा’ ऐसा शब्द नहीं है। चुनावी पराजय की हताशा, झुंझलाहट, कुंठा आदि की बात भी राजनीतिक या चुनावी मंचों तक ही सीमित रखनी चाहिए। संसद के मायने ही अलग हैं। दरअसल ‘ड्रामा’ तो ‘एसआईआर’ (विशेष गहन पुनरीक्षण) और चुनाव आयोग के नाम पर खेला जा रहा है। बीते कल एक वीडियो टीवी चैनलों पर प्रसारित होता रहा। उप्र के एक बीएलओ ने आत्महत्या से पहले यह वीडियो बनाया था। वीडियो में बीएलओ अपनी मां से बार-बार माफी मांग रहा है और चार छोटी-छोटी बेटियों का ख्याल रखने की गुहार कर रहा है। वह व्यक्ति लगातार रो रहा है। कमोबेश इससे ज्यादा मार्मिक और पीडि़त दृश्य नहीं हो सकता, लेकिन ऐसी आत्महत्याओं के बाद भी चुनाव आयोग दावे करता रहा है कि सब कुछ 99 फीसदी हो रहा है। लानत है ऐसी संवैधानिक व्यवस्था पर! संसद में ड्रामा यह किया गया है कि 14 दिसंबर, 1988 की तत्कालीन स्पीकर बलराम जाखड़ (प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे) की रूलिंग का हवाला देते हुए सरकार ने संसद में एसआईआर और चुनाव आयोग की भूमिका पर, किसी भी नियम के तहत, चर्चा कराने से इंकार कर दिया है। क्या स्पीकर की रूलिंग और चुनाव आयोग सरीखी संवैधानिक, स्वायत्त संस्था संसद के लिए कोई संवैधानिक विवशता है कि उन्हें लांघा नहीं जा सकता? संसद सर्वोच्च अदालत की संविधान पीठ के फैसले को तो पलट सकती है, लेकिन स्पीकर की रूलिंग लक्ष्मण-रेखा है।

दरअसल कोई संवैधानिक बाध्यता अथवा लकीर नहीं है। चुनाव आयोग का बजट संसद पारित करती है। कानून मंत्रालय इसे पेश करता है। आयोग के तीनों सर्वोच्च आयुक्त प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कमेटी नियुक्त करती है। चूंकि अब सूत्र बता रहे हैं कि ‘चुनाव सुधार’ के बैनर तले, एसआईआर का नाम लिए बिना ही, संसद में इस मुद्दे पर बहस हो सकती है। विपक्ष का एक धड़ा इसके लिए सहमत है। एसआईआर के कारण अभी तक 40 मौतें (आत्महत्या समेत) हो चुकी हैं। क्या यह आंकड़ा चुनाव आयोग के आयुक्तों को नहीं झकझोरता? क्या इससे भी अधिक घातक कोई व्यवहार और उसका ड्रामा हो सकता है? दरअसल सर्वोच्च अदालत में वरिष्ठ संविधान विशेषज्ञ अभिषेक मनु सिंघवी ने 53 मिनट की अपनी दलीलों में यह स्थापित करने की कोशिश की है कि एसआईआर एक ‘असंवैधानिक’ और ‘अवैध’ प्रक्रिया है। यह एक विशेष चुनाव क्षेत्र में की जा सकती है, एक साथ 12 राज्यों अथवा देश भर में नहीं। यह जनप्रतिनिधित्व कानून के भी खिलाफ है।

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