एसआईआर के विरोधाभास

चुनाव आयोग ने 12 राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) का कार्यक्रम घोषित किया है। अंतिम एसआईआर 2002-04 में किया गया था। लंबे 21 सालों के बाद यह अभियान छेड़ा गया है, जाहिर है कि मतदाताओं की संख्या, छंटनी, पात्रता आदि में व्यापक परिवर्तन आए होंगे! एसआईआर के दूसरे चरण में 51 करोड़ से अधिक मतदाता शामिल होंगे। यह कवायद अंतिम सूची के साथ 7 फरवरी, 2026 को समाप्त होगी। भारत का संविधान अनुच्छेद 324 और 326 में चुनाव आयोग को विशेषाधिकार देता है कि वह निष्पक्ष, निर्भीक, स्वतंत्र चुनाव कराए और समय-समय पर मतदाता सूचियों का शुद्धिकरण करता रहे। एसआईआर का दूसरा चरण उप्र से शुरू होगा, क्योंकि 25 करोड़ से अधिक आबादी वाला यह देश का सबसे बड़ा राज्य है। उप्र में अप्रैल-मई, 2027 में विधानसभा चुनाव भी होने हैं, लेकिन आयोग की प्राथमिकता पर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल राज्य और संघशासित क्षेत्र होंगे, जहां 2026 में चुनाव होने हैं। असम में भी 2026 में चुनाव होंगे, लेकिन उसे फिलहाल एसआईआर से अलग रखा गया है। असम के संदर्भ में अजीब विरोधाभास सामने आया है कि मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व सरमा एसआईआर के पक्षधर हैं, लेकिन चुनाव आयोग असम में नागरिकता की स्थिति भिन्न मानता है। आयोग की दलील है चूंकि सर्वोच्च अदालत की देखरेख में असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर अदालत का फैसला अभी आना है, लिहाजा असम पर बाद में एसआईआर का आदेश जारी किया जाएगा। हकीकत यह है कि असम में एनआरसी के तहत जिन 19 लाख से अधिक लोगों की गणना की गई थी, उसमें 7 लाख से ज्यादा ही मुसलमान पाए गए।
शेष 12 लाख से ज्यादा गैर-मुस्लिम थे। एनआरसी की यह कवायद 2019 में ही पूरी हो चुकी है, लेकिन सर्वोच्च अदालत का फैसला शेष है। इसी तरह शीर्ष अदालत के आदेशानुसार महाराष्ट्र में 31 जनवरी, 2026 तक स्थानीय निकाय (बीएमसी) के चुनाव होने हैं। मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस एसआईआर के पक्ष में हैं और उसे ‘डॉक्टरिन’ के तौर पर पेश कराना चाहते हैं, लेकिन चुनाव आयोग तैयार नहीं है। केरल में भी स्थानीय निकाय के चुनावों की चर्चा जारी है, लेकिन अंतिम फैसला नहीं हो पाया है। चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र में एसआईआर को टाल दिया है, लेकिन केरल में यह अभियान चलाया जाएगा। बेशक एसआईआर चुनाव आयोग का विशेषाधिकार है और बिहार के संदर्भ में सर्वोच्च अदालत ने एसआईआर पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था। अलबत्ता शीर्ष अदालत के हस्तक्षेप से ‘आधार कार्ड’ को मान्य दस्तावेज स्वीकार करना पड़ा। विरोधाभास यह भी है कि चुनाव आयोग का दावा है कि बिहार में दावों, अपील या आपत्ति का ‘शून्य’ आवेदन भी उसे नहीं मिला, लिहाजा वह बिहार में अपने प्रयोग पर संतुष्ट है, लेकिन विपक्षी दल और चुनावी पंडितों की एक जमात बार-बार, लगातार पूछ रही है कि आयोग ने कितने घुसपैठिए पकड़े और उन्हें मताधिकार का अपात्र घोषित किया? चुनाव आयोग इन सवालों पर निरुत्तर रहा है, लेकिन उसके सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारियों का कहना है कि जिला चुनाव अधिकारियों ने ऐसी शिकायतें गृह मंत्रालय को भेज दी हैं। विदेशी अवैध प्रवासी या घुसपैठिए कितने हैं, उन पर क्या कार्रवाई की जाएगी, यह गृह मंत्रालय ही तय करेगा। यह उसी का विशेषाधिकार है। मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने एसआईआर का महत्व समझाते हुए कहा है कि पलायन, दो जगह नाम, मौत, अवैध मतदाताओं से सूचियों में अशुद्धि आना स्वाभाविक है। दरअसल कोई पात्र और वैध मतदाता सूची में शामिल होने से न रह जाए और अवैध, अपात्र मतदाता सूची से बाहर किया जाना चाहिए, एसआईआर का बुनियादी मकसद यही है। विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों-तमिलनाडु और बंगाल-में खासकर इस अभियान का धुर विरोध किया जा रहा है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 67 आईएएस समेत कुल 527 अधिकारियों के तबादले कर दिए हैं। ममता की पार्टी तृणमूल कांग्रेस 2 नवंबर को कोलकाता में, एसआईआर के विरोध में, बड़ी रैली करने जा रही है। द्रमुक और तृणमूल ने इस कवायद को वैध मतदाताओं का संवैधानिक अधिकार छीन लेने की साजिश करार दिया है। यह लोकतांत्रिक सोच नहीं है, क्योंकि 1951 से 2004 तक 8 बार एसआईआर कराया गया था। यह 9वां अभियान है।




