संपादकीय

नोबेल से अहम ‘शांतिदूत’

अमरीकी राष्ट्रपति टं्रप को नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिलना ‘एंटी क्लाइमेक्स’ रहा। उन्हें यह सर्वोच्च सम्मान मिलना ही नहीं था, क्योंकि उनका नामांकन ही नहीं था। राष्ट्रपति टं्रप निराश न हों और गुस्से में ‘व्हाइट हाउस’ से तल्ख प्रतिक्रियाएं बंद होनी चाहिए। नोबेल पुरस्कार के बीते 125 सालों में, सिर्फ 143 पुरुषों और महिलाओं को छोड़ कर, असंख्य दावेदार यह पुरस्कार हासिल करने में नाकाम रहे हैं। वे पराजित नहीं हुए और न ही बैठ गए, बल्कि अपने मिशन में पागलों की तरह जुट गए। अंतत: कुछ नोबेल पुरस्कार पाने में सफल रहे। बेशक नोबेल पुरस्कार सर्वोच्च और दुर्लभ सम्मान है, तो अमरीकी राष्ट्रपति होना भी ‘दुर्लभतम’ है। अमरीकी समाज में लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी और विरोध-प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार भी ‘सर्वोच्च स्तर’ का है। राष्ट्रपति के खिलाफ भी आंदोलित भीड़ सडक़ों पर सामान्य तौर पर देखी जा सकती है। लिहाजा राष्ट्रपति टं्रप तालियां बजाएं और खुश रहें और युद्ध समाप्त करवा शांति स्थापित कराने, असंख्य जिंदगियां बचाने और प्रताडि़त, पीडि़त, विस्थापित लोगों के पुनर्वास के अत्यंत मानवीय मिशन में जुट जाएं। बेशक भारत-पाकिस्तान युद्धविराम में उनकी कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन वह नोबेल शांति पुरस्कार पाने के उतावलेपन के मद्देनजर लगातार झूठा और खोखला दावा करते रहे। बहरहाल रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में राष्ट्रपति टं्रप ने गंभीर शांति-प्रयास किए हैं, यह रूसी राष्ट्रपति पुतिन भी मानते हैं। पुतिन का यह भी मानना है कि नोबेल पुरस्कार अब अपनी प्रतिष्ठा खो चुके हैं। टं्रप कंबोडिया, थाईलैंड, अर्मीनिया आदि देशों के युद्धों पर भी नकली दावे करते रहे हैं। ईरान-इजरायल युद्ध के दौरान, यदि, अमरीका अपनी भारी और विनाशकारी बमबारी न करता, तो न जाने उस युद्ध के नतीजे क्या होते? ईरान-इजरायल की व्यापक तबाही और बर्बादी हो सकती थी! प्रख्यात उपन्यासकार जॉर्ज ओरवेल ने अपने उपन्यास ‘1984’ में एक विरोधाभासी नारा लिखा था- युद्ध ही शांति है। स्वतंत्रता गुलामी है।

युद्ध की स्थिति में नागरिक शांति और सुरक्षा का अनुभव करते हैं। ऑरवेल यह भी कहना चाहते थे कि दरअसल शांति ही युद्ध है। दक्षिण अमरीकी देश वेनेजुएला में विपक्ष की नेता और तानाशाही ताकतों के खिलाफ लोकतंत्र के लिए लडऩे वाली मारिया मचाडो को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया है। ऑरवेल के कथन को उनके संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। बहरहाल इस साल नोबेल शांति के लिए 338 नामांकन स्वीकारे गए। राष्ट्रपति टं्रप! यह याद रखें कि यदि आपने किसी भी युद्ध को समाप्त कराने की कोशिश भी की है, तो यकीनन वह निस्वार्थ सेवा है। इस पर सोचते हुए आप अपने शांति-प्रयासों पर गर्व महसूस कर सकते हैं। नोबेल कमेटी भी 2026 में सोचने को बाध्य होगी कि वाकई शांति के लिए गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। यदि फिलिस्तीन की गाजा पट्टी में वाकई युद्धविराम लागू हुआ है। पीडि़त, उजड़े हुए लोग अपने घरों को लौट रहे हैं। फिलिस्तीनी और इजरायली लोगों के चेहरों पर खुशी और राहत साफ दिख रही हैं, तो उसका बुनियादी श्रेय राष्ट्रपति टं्रप को दिया जाना चाहिए। उन्होंने ही कूटनीति और दबाव से अरब देशों को मनाया, शांति समझौते के लिए तैयार किया और इजरायल, हमास को भी अपने सूत्र मानने को विवश किया। गाजा में करीब 2 लाख टन बारूद विस्फोटित किया जा चुका है। हिरोशिमा पर जो परमाणु बम गिराया गया था, वैसे 13 परमाणु बमों से विनाश किया जा चुका है। प्रत्येक 10 में से 1 आदमी की या तो मौत हो चुकी है अथवा वह घायल है। 64,000 से अधिक मौतें हुई हैं। औसतन 10 में से 9 लोग बेघर हैं। संयुक्त राष्ट्र के डाटा के मुताबिक, 1,02,067 इमारतें तबाह हो चुकी हैं। 10 में से 9 घर मिट्टी-मलबा हो चुके हैं। खेतों की औसतन 10 में से 8 एकड़ जमीन बंजर हो चुकी है। करीब 5.4 करोड़ टन मलबा हटाने में कमोबेश 10 साल लग सकते हैं। करीब 90 फीसदी साफ पानी और ड्रेनेज बर्बाद हो चुके हैं। औसतन 6 लीटर पानी प्रतिदिन प्रति व्यक्ति के लिए शेष है। 38 में से 25 बड़े अस्पताल मलबा हो चुके हैं। यदि ऐसे इलाके में शांति बहाल कराई जाती है, राहत सामग्री लगातार मिलती है, हमास और इजरायल अपने वायदों को निभाते हैं, तो शांति पुरस्कार ऐसे विराट काम के सामने बौना है। बहरहाल इस बार ट्रंप के बजाय किसी और को शांति का नोबेल देने का तात्पर्य यह भी है कि इस मामले में स्वतंत्र चयन की सोच रहती है।

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