संपादकीय

फिल्म में सच्चाई

हमारे देश में हर चीज में राजनीति घुसेडऩा एक आदत सी बन गई है और यह बात तथाकथित लिबरल और हमारे थके-पके कम्युनिस्ट भाइयों पर पूरी तरह से लागू होती है। अब ताजा संदर्भ है एक मूवी का जिसका नाम है धुरंधर। अनछुए विषय पर बनी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तो धमाल मचाया ही, सोये हुए भारतीयों को फिर जगा दिया। और यहीं से लेफ्ट लिबरल लोगों की तकलीफ बढ़ गई कि क्यों पुराने जख्म कुरेदे गए या फिर पाकिस्तान को बैड लाइट में दिखाया गया। लेकिन जो सच है, उसे छुपाना कैसा? फिल्मकार आदित्य धार ने एक पुराने लेकिन प्रासंगिक विषय पर एक फिल्म बना डाली। यह कहानी है पाकिस्तान के कराची शहर की जहां का सबसे पुराना इलाका ल्यारी गैंग वार से दशकों से आतंकित रहा है। उसी ल्यारी में एक खूंखार डॉन होता था जिसका नाम था बाबू बलोच। लेकिन वह बाबू डकैत के नाम से जाना जाता है। उसकी दहशत इतनी थी कि लोग उसका नाम सुनते ही कांपने लगते थे। बाबू बलोच को रहमान नाम के दूसरे बलोच ने मार गिराया और खुद वहां का बेताज बादशाह बन बैठा। रहमान डकैत बेहद क्रूर और निर्दयी था। इनसानी जिंदगी की उसके पास कोई कीमत नहीं थी। उसके ही गैंग में धुरंधर यानी भारतीय एजेंट हमजा बलोच बनकर जा घुसा। इस फिल्म की कहानी में उन डकैतों की जिंदगी और एक आईएसआई एजेंट की मिलीभगत के सीन भी हैं। एक पुलिस अफसर असलम की भी कहानी है जो डकैतों को खत्म करने में लगा था। कई सालों तक कराची में उसका नाम गूंजता था। कहा जाता है कि बाद में जब तालिबान कराची में घुसे तो उन्होंने एसपी असलम को ही उड़ा दिया। बहरहाल इस फिल्म से लिबरल और कम्युनिस्टों को तकलीफ यह है कि इसमें कराची के मुसलमानों के बारे में सच-सच दिखाया गया।

हिंदुओं के बारे में कहा गया कि वे डरपोक होते हैं। इन बातों से उन्हें बहुत तकलीफ हो रही है और पाकिस्तानी मीडिया के सदस्यों की तरह ही इसे गलत साबित करने में लगे हुए हैं। लेकिन यह सब कुछ सच है। आप पूछेंगे कि कैसे? तो मैं बताता हूं कि भारत-पाकिस्तान क्रिकेट श्रृंखला कवरेज के लिए मैं नवभारत टाइम्स की ओर से पाकिस्तान गया था। वहां मुझे दोनों पहलू दिखे। एक ओर मेरी एक भारतीय के तौर पर बहुत खातिर हुई तो दूसरी ओर मुझे कुछ ऐसे पाकिस्तानी भी मिले जो भारत को बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। दैनिक अखबार जंग के एक सीनियर जर्नलिस्ट थे जिनका नाम मुझे याद नहीं है, भारतीय पत्रकारों के लिए शाकाहारी खाना लाहौर के गद्दाफी स्टेडियम में लाते थे। वह लीजर टाइम में या फिर लंच टाइम में पाकिस्तान के बारे में काफी कुछ बताते थे। उससे मुझे मालूम पड़ा कि कैसे वहां क्राइम और करप्शन का बोलबाला है। मैंने खुद वहां इमिग्रेशन और कस्टम काउंटर पर रिश्वत दी क्योंकि वह एक रिवाज था। इतना ही नहीं एक बार मैं और मेरे फोटोग्राफर मित्र विमल सक्सेना जब लाहौर के बाजार में घूम रहे थे तो वहां हमारा एक दुकानदार से डॉलर बदलने के मामले में विवाद हो गया तो फिर हमारे फोटोग्राफर मित्र लडऩे की मुद्रा में आ गए थे, दिल्ली स्टाइल में। फिर लोगों ने बीच-बचाव कराया। मैंने अपने मित्र का हाथ पकड़ा तो उसी समय उस दुकानदार ने कहा कि हिंदू डरपोक होते हैं। यह मेरे कानों से सुनी बात है। अगर फिल्म में ऐसा कहा गया है तो सोलह आने सही कहा गया है। पहले वहां यही माना जाता था। अब हालात शायद बदले हैं। इसका कारण यह भी था कि पाकिस्तान बनाने की बात जिन्ना ने जब सोची तो उसने डायरेक्ट एक्शन की बात की जिसके तहत आठ लाख हिंदू और सिख मार दिए गए, लड़कियां उठा ली गईं, धन लूट लिया गया। हिंदू कुछ नहीं कर सके। इसलिए उन्हें डरपोक माना जाता है। इस फिल्म में सच्चाई बयान की गई है, इसमें दो राय नहीं होनी चाहिए। हर विषय पर राजनीति भी नहीं होनी चाहिए, आखिर सीमा पार का मामला है।

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