बिहार का चुनाव और लालू का कुनबा

शायद उनको भी यह विश्वास हो गया था कि तेजस्वी अपने बलबूते चुनाव की वैतरणी पार नहीं कर पाएंगे। और इस बार यदि नाव बीच में फंस गई तो दोबारा नाव ही खत्म हो जाएगी। लेकिन इतना सब कुछ कर लेने के बाद भी चुनाव जीतने के लिए रणनीति क्या अपनाई जाए, यह समस्या थी…
बिहार विधानसभा के चुनाव में इस बार भाजपा या एनडीए का कितना कुछ दांव पर लगा हुआ था। उधर महागठबंधन का तो भविष्य ही दांव पर था। यहां तक कि उसे अपने समर्थन में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन तक को जनसभाओं में भाषण के लिए बुलाना पड़ा। वे क्या बोले और बिहार के लोगों को कितना समझ में आया, यह अलग बात है। राहुल गांधी के सलाहकारों को लगता था कि पूरे भारत में राहुल जी के परिपक्व नेतृत्व को स्थापित करने के लिए इस चुनाव से बेहतर मौका नहीं मिल सकता। राहुल गांधी के सलाहकारों के आगे तो दोहरी चुनौती थी। सबसे पहले यह स्थापित करना कि राहुल जी परिपक्व हो गए हैं और दूसरा यह कि वे अब दुनिया के प्राचीनतम देश का नेतृत्व संभालने के लिए तैयार हो गए हैं। उन्हें लगता था कि बिहार के मैदान से अच्छा मैदान और कहीं नहीं मिल सकता। बिहार के आम आदमी जैसा दिखने के लिए वे बिहार के एक जौहड़ (छप्पड़) में मछलियां पकडऩे तक के लिए कूद गए। लेकिन वे बिहार के लोगों को बेच रहे थे कि चुनाव में ‘वोट चोरी’ होगी। उनका कहना था कि पिछले चुनावों में भी वोट चोरी हुई है। इस वोट चोरी में सरकार के साथ देश का चुनाव आयोग भी मिला हुआ था। दरअसल चुनाव आयोग चुनाव से पहले बिहार में मतदाता सूची को नए सिरे से तैयार करवा रहा था ताकि जिन लोगों की मौत हो चुकी है, उनको सूची में से निकाला जाए। जिन लोगों ने देश के अन्य हिस्सों में वोट बनवा लिया है, उनका नाम सूची में से काटा जा सके। राहुल गांधी के सलाहकारों का इन जमीनी प्रक्रियाओं से कुछ लेना देना नहीं है।
उन्होंने इसको वोट चोरी का नाम देकर ‘वोट चोर’ का ‘पैन ड्राइव’ तैयार कर राहुल जी में भर दिया और राहुल जी महीना भर बिहार में वोट चोर का गीत गा गाकर कोलम्बिया चले गए। यह कांग्रेस का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि राहुल को परिपक्व बनाने में तैनात टुकड़ी ने यह चैक करने की जरूरत नहीं समझी कि वोट चोर का जो गीत वे राहुल गान्धी से बजवा रहे हैं, उसे बिहार के लोग पसन्द भी करते हैं या नहीं? सोनिया गान्धी यह समझती रहीं कि बिहार के लोग सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं, इसलिए उनको राहुल गान्धी जो परोस देंगे वे धन्य हो जाएंगे। उन्हें यह इल्म नहीं था कि आर्थिक लिहाज से बिहार पिछड़ा हो सकता है, लेकिन राजनीतिक चेतना में बिहार देश में सबसे आगे माना जाता है। जो हालत राहुल गान्धी की थी, वही हालत लालू परिवार के तेजस्वी यादव की थी। लालू यादव और राबड़ी देवी जी की नौ संतानें हैं। उनमें से ऊपर की सात लड़कियां हैं और नीचे के दो बेटे हैं। तेज प्रताप बड़ा और तेजस्वी यादव छोटा। लेकिन अरसा पहले लालू जी ने फैसला कर लिया था कि परिवार की राजनीतिक विरासत सबसे छोटे बेटे तेजस्वी यादव को सौंपेंगे। शायद यह भी एक कारण था जिसके कारण तेजस्वी को अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी करने का भी अवसर नहीं मिला। खैर, इसलिए लालू जी सभी के मुख से कहलवाना चाहते थे कि बिहार के अगले मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव होंगे। महागठबंधन के दूसरे घटक लालू जी की इस चाहत को समझ गए थे और अपना मुंह खोलने की मुंह मांगी कीमत मांगने लगे। लालू राजनीति के घाघ कहे जाते हैं। उनको यह अंदाजा तो जरूर होगा ही कि जो कीमत मांगी जा रही है, उतनी उनकी औकात नहीं है। लेकिन अपनी बढ़ती उम्र, जेल जाने का भय (लालू यादव सजायाफ्ता हैं और फिलहाल सेहत के कारण पैरोल पर हैं, स्वास्थ्य ठीक होने पर उन्हें जेल जाना है), इन कारणों से उन्हें मजबूरी में सभी को मुंह मांगी कीमत चुकानी पड़ी। इसी प्रकरण में निषाद समुदाय की वोटों का लालच दिखला कर मुकेश साहनी ने यह कहलवाया कि तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने पर उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। कांग्रेस भी इसी छीना-झपटी में 61 सीटें ले गईं जिस पर उसने अपने प्रत्याशी उतारने थे। यह अलग बात है कि उसके पास इतने प्रत्याशी भी नहीं थे।
लेकिन एक बार फिर आखिर लालू जी ये गैरवाजिब समझौते करने के लिए इतना नीचे तक कैसे उतर आए? शायद उनको भी यह विश्वास हो गया था कि तेजस्वी अपने बलबूते चुनाव की वैतरणी पार नहीं कर पाएंगे। और इस बार यदि नाव बीच में फंस गई तो दोबारा नाव ही खत्म हो जाएगी। लेकिन इतना सब कुछ कर लेने के बाद भी चुनाव जीतने के लिए रणनीति क्या अपनाई जाए, लालू के सामने सबसे बड़ा सवाल यही था। राहुल गान्धी के सलाहकारों ने तो एक ही रणनीति अपना ली थी, वोट चोर का गीत गाते रहने की, बिना देखे कि श्रोता इसे पसन्द भी कर रहे हैं या नहीं। तेजस्वी को इतना तो पता था कि लोगों को यह गीत पसन्द नहीं आ रहा था। क्योंकि बिहार ने लालू-राबड़ी राज में वोट चोरी को देख रखा था जब ताकतवर लोग मतदान की पेटियां ही उठा लेते थे और गरीब लोगों को मतदान केन्द्र तक जाने ही नहीं देते थे। तेजस्वी यादव को यह आभास उसी समय हो गया था जब चुनाव से पहले वह भी उन गाडिय़ों में बैठ गए थे जिसमें बैठ कर राहुल गान्धी वोट चोरी का बेसुरा राग गा रहे थे। इसलिए तेजस्वी ने वोट चोरी वाले राग से तो दूरी बना ली। लालू जी शायद यह भी भांप गए थे कि दीवारों पर उनका पोस्टर लगा देने से लोगों को जंगल राज की कड़वी यादें तंग करने लगती हैं, इसलिए उन्होंने तेजस्वी को मना कर दिया कि उनका फोटू न लगाया जाए। अब तेजस्वी यादव के पास चुनाव में कहने के लिए बचता क्या था? इसलिए तेजस्वी के सलाहकारों ने रणनीति बनाई कि मोदी-नीतीश की विश्वसनीयता को ही चुनौती दी जाए। मुझे लगता है यह बिल्कुल गलत पिच का चुनाव कर लिया गया। यदि मोदी-नीतीश और लालू-तेजस्वी की विश्वसनीयता पर ही फैसला होना था, तो बिहार में कोई भी बता सकता था लालू-तेजस्वी इस मामले में यकीनन हार जाएंगे। तेजस्वी ने दूसरा फ्रंट नीतीश की सेहत को लेकर खोल दिया। तेजस्वी का कहना था कि चाचू (तेजस्वी नीतीश कुमार को चाचू भी कहते हैं) की सेहत खराब है। जिस पार्टी की ओर से तेजस्वी चुनाव लड़ रहे थे उस पार्टी (आरजेडी) के अध्यक्ष, उनके बापू लालू यादव की सेहत तो नीतीश कुमार से खराब ही थी। तेजस्वी ने चाचू की सेहत का मुद्दा उठाया तो बिहार में ‘बापू’ की सेहत का मामला खुद ही चर्चा में आ गया। तेजस्वी और राहुल बिहार में अप्रासंगिक होकर अलग अलग उन मुद्दों को लेकर घूमते रहे जिन्होंने बिहारियों के मन को नहीं छुआ। इस बार एक तीसरा तम्बू भी बिहार चुनाव में लग गया था। इस तम्बू के मालिक बिहार के प्रशांत किशोर पांडेय थे, जिनको उनके समर्थक पीके कहते हैं।
पीके आंकड़ों के जमा-घटाव से चुनाव जीतने के जादुई फार्मूले अब तक विभिन्न पार्टियों को बेचते आए थे और उससे चोखा माल कमाया था। उनका कहना था कि नरेन्द्र मोदी, ममता बनर्जी, कैप्टन अमरेन्द्र सिंह और नीतीश कुमार, ये सभी लोग उनके इन जादुई फार्मूलों से ही चुनाव जीते हैं। जादू करते कई बार जादूगर को भी लगने लगता है कि उसने एक कबूतर के दो कबूतर बना कर जो जनता को दिखाए हैं, वे सचमुच के ही दो कबूतर हैं। जबकि जादूगर भी जानता है कि कबूतर दो नहीं एक ही है, दूसरा केवल हाथ की सफाई के कारण दिखाई दे रहा है। इस प्रकार जादू दिखाते दिखाते कई बार जादूगर खुद ही अपने जादू का शिकार हो जाता है। प्रशान्त किशोर बनाम पीके के साथ बिहार में यही हुआ। सबसे पहले तो उनको सचमुच यह भ्रम हो गया कि नरेन्द्र मोदी से लेकर नीतीश कुमार तक सभी उन्हीं के जादुई फार्मूलों के कारण जीते हैं। यह भ्रम सचमुच बड़ा खतरनाक होता है। इस भ्रम का शिकार होने के बाद पीके ने फैसला कर लिया कि वे दूसरों को मुख्यमंत्री बना सकते हैं, तो खुद ही मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन सकते? लेकिन वह भी विफल रहे।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री




