लेख

भारतीय संविधान, संघर्ष, संकल्प व सरोकार

प्रत्येक नागरिक को यह समझना होगा कि लोकतंत्र केवल वोट देने तक सीमित नहीं, बल्कि यह सतत भागीदारी, जिम्मेदारी और जागरूकता की प्रक्रिया है…

भारत का संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह भारत की आत्मा, विचारधारा और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है। यह देश के करोड़ों नागरिकों की आकांक्षाओं, संघर्षों और संकल्पों का परिणाम है। प्रत्येक वर्ष 26 नवंबर को हम संविधान दिवस या संविधान अंगीकरण दिवस मनाते हैं, ताकि उस ऐतिहासिक क्षण को याद किया जा सके जब 1949 में संविधान सभा ने इस महान दस्तावेज को अपनाया था। यह वह दिन था जब भारत ने अपने भाग्य का निर्धारण स्वयं करने का संकल्प लिया और लोकतंत्र की नींव को सशक्त किया। संविधान का निर्माण भारत की स्वतंत्रता के बाद एक अत्यंत कठिन दौर में हुआ। विभाजन की पीड़ा, सामाजिक विषमताएं, अशिक्षा, गरीबी और सांस्कृतिक विविधता के बावजूद भारतीय संविधान निर्माताओं ने एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया जो न केवल शासन की व्यवस्था प्रदान करता है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को भी स्पष्ट दिशा-निर्देश प्रस्तुत करता है। 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा का गठन हुआ और 2 वर्ष, 11 माह तथा 18 दिनों के गहन विचार-विमर्श, बहस और सुझावों के बाद 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकृत किया गया। डा. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता में बनी मसौदा समिति ने इसे अंतिम रूप दिया। अंतत: इसे 26 जनवरी 1950 से लागू किया गया। यह वह तिथि है जिसे वर्ष 1930 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज्य दिवस के रूप में मनाया गया था।

भारतीय संविधान विश्व का सबसे विस्तृत और जीवंत संविधान है। मूल रूप से इसमें 22 भाग, 8 अनुसूचियां और 395 अनुच्छेद थे, जो समय के साथ संशोधनों द्वारा 25भाग, 12 अनुसूचियों तथा 448 अनुच्छेद तक विस्तारित हो चुके हैं। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह न केवल कानूनन शासन की रूपरेखा बताता है, बल्कि नागरिक जीवन के प्रत्येक पहलू जैसे न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व-भातृभाव के आदर्शों को व्यावहारिक रूप में भी प्रस्तुत करता है। संविधान की प्रस्तावना इन आदर्शों का उद्घोष करती है कि ‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए…’, यह वाक्य इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भारत की शक्ति जनता में निहित है, अर्थात संवैधानिक तौर पर भारत के लगभग 140 करोड़ लोग ही शक्ति का वास्तविक केन्द्र हंै। जो भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के द्वारा स्थापित की गई है, ऐसा कहने में कदाचित अतिशयोक्ति न होगी। भारतीय संविधान का एक अनूठा व अनुपम पहलू यह भी है कि इसे विश्व के विभिन्न संविधानों से सर्वोत्तम प्रावधानों को चुनकर तैयार किया गया, जिसमें ब्रिटेन से संसदीय शासन प्रणाली, मंत्रीपरिषद की सामूहिक जिम्मेदारी और कानून का शासन लिया गया क्योंकि ब्रिटिश परंपरा से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को संसदीय लोकतंत्र का व्यावहारिक अनुभव प्राप्त हुआ था। वहीं अमेरिका से मौलिक अधिकार, न्यायिक पुनरीक्षण और संघीय शासन की अवधारणा अपनाई गई, क्योंकि अमेरिकी संविधान ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी थी। इसके अतिरिक्त देश में सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने हेतु आयरलैंड के संविधान से राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत लिए गए। इतना ही नहीं विविधता में एकता बनाए रखने के उद्देश्य से कनाडा से संघीय ढांचे में केंद्र को मजबूत बनाने का सिद्धांत लिया गया। वैसे ही ऑस्ट्रेलिया से समवर्ती सूची और व्यापार की स्वतंत्रता के प्रावधान अपनाए गए, जो राज्यों और केंद्र के बीच संतुलन बनाए रखते हैं। भारतीय संविधान ने विश्व के लोकतांत्रिक अनुभवों को आत्मसात कर एक ऐसा दस्तावेज तैयार किया जो भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल और व्यावहारिक है। संविधान प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकार प्रदान करता है जिनका उद्देश्य व्यक्ति की गरिमा की रक्षा करना और समाज में समान अवसर सुनिश्चित करना है। साथ ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थापना के लिए संविधान नीति निर्देशक सिद्धांतों को व्यवहार में लाने के निर्देश देता है। संविधान केवल अधिकार नहीं देता, बल्कि नागरिकों के कर्तव्यों की भी याद दिलाता है। संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में 11 मौलिक कर्तव्य बताए गए हैं। अधिकार और कर्तव्य का यह संतुलन ही देश के लोकतंत्र को वास्तविक मजबूती प्रदान करता है। संविधान दिवस का महत्व केवल एक ऐतिहासिक स्मरण तक सीमित नहीं है। यह दिन हमें आत्ममंथन का अवसर देता है कि क्या हम अपने संविधान के आदर्शों पर चल रहे हैं? क्या सामाजिक और आर्थिक न्याय हर व्यक्ति तक पहुंचा है? क्या आज भी प्रत्येक नागरिक अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सजग है? यह दिवस हमें अपने कर्तव्यों का बोध कराता है और संविधान में निहित मूल्यों को जीवन में उतारने की भी प्रेरणा देता है।

परंतु, बदलते समय के साथ संविधान के समक्ष अनेक नई चुनौतियां उभरकर सामने आई हैं।

सामाजिक असमानता और जातीय भेदभाव अब भी भारतीय समाज में गहराई तक मौजूद हैं। आर्थिक विषमता, राजनीति में वैचारिक धु्रवीकरण, संवैधानिक संस्थाओं की कार्यप्रणाली तथा स्वतंत्रता को लेकर समय-समय पर प्रश्न उठना लोकतंत्र के संवाद को कमजोर कर रही है। वहीं वर्तमान डिजिटल युग में फेक न्यूज, साइबर अपराध और निजता का उल्लंघन जैसी समस्याएं संविधान के नए अर्थ और आयाम गढ़ रही हैं। इसके अतिरिक्त पर्यावरणीय संकट भी एक गंभीर चुनौती बनकर सामने आया है, जबकि संविधान नागरिकों को पर्यावरण की रक्षा का कर्तव्य सौंपता है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक है कि हम संविधान की भावना को केवल पुस्तकों में न रखकर व्यवहार में लाने की कवायद करें। सबसे बढक़र प्रत्येक नागरिक को यह समझना होगा कि लोकतंत्र केवल वोट देने तक सीमित नहीं, बल्कि यह सतत भागीदारी, जिम्मेदारी और जागरूकता की प्रक्रिया है। संविधान को सशक्त बनाना केवल सरकार का नहीं, बल्कि हर नागरिक का दायित्व है। डा. भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि उसे चलाने वाले लोग अच्छे नहीं होंगे तो वह विफल हो जाएगा। इसलिए संविधान दिवस हमें यह याद दिलाता है कि संविधान की सफलता हमारे चरित्र, आचरण और नागरिक चेतना पर निर्भर करती है।-डा. सतपाल

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