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मणिपुर की उलझन व पीएम का आगमन

अलग होना और विरोधी होना दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। हिमालय के इस पूरे उत्तरी क्षेत्र को भूगोल के लिहाज से ही पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर में बांटा जाता है। पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर दोनों में ही घाटियां और पहाड़ हैं। इसलिए दोनों क्षेत्रों में मोटे तौर पर मैदानी लोग और पहाड़ी लोग रहते हैं। इस लिहाज से जनसंख्या का विभाजन भी मैदानी और पहाड़ी के आधार पर ही होता है। प्राचीन ग्रंथों में पूर्वोत्तर भारत को किरात प्रदेश के नाम से भी जाना जाता है। मंगोल चेहरे मोहरे के कारण पहाड़ के लोगों को किरात भी कहा जाता था। किरात में उत्तर-पूर्व के सभी पहाड़ी लोग आ जाते हैं, इसी प्रकार पश्चिमोत्तर भारत को सप्त सिन्धु भी कहा जाता है। लेकिन उत्तर-पूर्व भारत में रहने वाले सभी पहाड़ी लोग एक ही बिरादरी के नहीं हैं, जैसे हिमाचल प्रदेश में रहने वाले सभी पहाड़ी एक ही बिरादरी के नहीं हैं। वे किन्नर, भोट, लाहुले, गद्दी, गुज्जर इत्यादि अनेक समुदायों से ताल्लुक रखते हैं। इसी प्रकार पूर्वोत्तर में पहाड़ी लोग सैकड़ों समुदायों में बंटे हुए हैं। उदाहरण के लिए आदी, निशी, नोक्ते, शेरदुकपेन, गारो, खासी, जयन्तिया, त्रिपुरी, जमातिया, देववर्मन, चांग, खादौ, तांखुल, पाएते व गंगते इत्यादि। वैसे यह सूची सैकड़ों तक फैली हुई है। लेकिन एक बात ध्यान में रखनी चाहिए जब मैदान का कोई व्यक्ति पहाड़ में रहने वाले किसी व्यक्ति को पहाडिय़ा कह कर पुकारता है तो वह केवल भूगोल के भाव से नहीं पुकारता, बल्कि उसके मन में पहाड़ के रहने वाले पहाडिय़ों के लिए या तो दया का भाव है या फिर हिकारत का भाव है। यही स्थिति असम के मैदानी इलाके में रहने वाले लोगों के मन में वहां के पहाड़ी लोगों के लिए प्राय: रहती है। मैदानी क्षेत्र और पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के बीच की अनेक समस्याओं का कारण भूगोल के अलावा यह भाव ही है। भूगोल के कारण उत्पन्न होने वाली सब से बड़ी समस्या तो व्यावहारिक होती है।

इस पृष्ठभूमि के बाद हम अपनी चर्चा केवल मणिपुर तक सीमित रखेंगे। इसलिए मणिपुर के भूगोल को ध्यान में रखते हुए इसे देखना होगा। मान लो यदि मणिपुर के पहाड़ों में रहने वाले दो समुदायों खादौ और खामलेंग में झगड़ा हो गया तो यकीनन खामलेंग, खादौ के पहाड़ में आने और बाहर जाने के रास्ते रोक सकते हैं। यदि मैतेयी और खादौ में झगड़ा हो जाता है तो दोनों एक दूसरे के तमाम रास्ते बंद कर सकते हैं। स्थिति पिंजरे में पड़े कबूतर जैसी हो सकती है। मणिपुर के मैदानी इलाके में रहने वाले लोगों को मैतेयी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त कुछ मुसलमान भी मैदानी इलाके में रहते हैं जो कभी बंगाल से आए थे। उन्हें पांगल कहा जाता है। इसके अतिरिक्त मणिपुर के पहाड़ों में रहने वाली लगभग पचपन समुदाय हैं। ये पचपन समुदाय भी भूगोल के हिसाब से दो हिस्सों में बंटे हुए हैं। दक्षिणी पहाडिय़ों में रहने वाले लगभग चालीस समुदाय हैं जिन्हें ब्रिटिश शासकों ने सामूहिक रूप से कुकी कहना शुरू किया, और उत्तरी पहाडिय़ों में रहने वाले लगभग चौदह समुदायों को नागा कहना शुरू कर दिया। पिछले कुछ दशकों से दक्षिणी पहाडिय़ों के समुदायों के लिए सामूहिक आधार पर कुकी नाम प्रचलन में है। जब यह शब्द प्रचलन में आ गया है तो एंथ्रोपोलोजिस्ट इसके लिए उपयुक्त तर्कों की तलाश में लगे रहते हैं। यह शब्द भ्रममूलक है और असम में अंग्रेजों के आने के बाद ही प्रचलन में आया।

मणिपुर की दक्षिणी पहाडिय़ों में खादौ समुदाय के लोग रहते हैं। यह समुदाय पहाड़ के लिहाज से बड़ा ही कहा जाएगा। शुरू में इस समुदाय को कुकी कहा जाने लगा। बाद में कुछ और छोटे समुदायों को खादौ के साथ नत्थी कर कुकी शब्द को विस्तार दिया गया। एंथ्रोपोलोजी में माथापच्ची करने वाले कोशिश करते रहते हैं किसी तरह म्यांमार के चिन प्रदेश में रहने वाले समुदायों, मिजोरम के मिजो जिन्हें ‘जो’ भी कहा जाता है, और मणिपुर के उन समुदायों को जिनकी अपनी पहचान अब धीरे-धीरे उभर रही है, को सम्मिलित रूप में किसी तरह एक ही मूल के स्थापित किया जा सके। इस प्रकार का बहुत सा साहित्य भी यूरोपीय भाषाओं में प्रकाशित होता रहता है। दक्षिणी पहाडिय़ों में जो सबसे बड़ा पहाड़ी समाज रहता है उसे खादौ कहा जाता है। इसी प्रकार उत्तरी पहाडिय़ों में जो सबसे बड़ा पहाड़ी समाज है उसे तांखुल कहा जाता है। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने मैतेयी, खादौ और तांखुल में विवाद पैदा किए। मणिपुर का वर्तमान विवाद भी इसी अविश्वास में से पैदा हुआ है। सरकार विकास को गति दे सकती है लेकिन अविश्वास की इस भावना को तो प्रदेश के समाजशास्त्रियों को स्वयं दूर करना होगा। इस दिशा में पहल भी हुई है। सबसे बड़े पहाड़ी समुदाय खादौ ने कहा है कि उसे कुकी कहना बंद किया जाए। यह अपमानजनक ही नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति को नष्ट करने का षड्यंत्र है। इस प्रदेश में दोनों समुदायों के विकास से समस्याओं का हल खोजा जा सकता है। एक-दूसरे समुदाय का अस्तित्व स्वीकार करना भी जरूरी है।-कुलदीप चंद अग्निहोत्री

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