संपादकीय

मनरेगा अब ‘जी राम जी’

संसद के शीतकालीन सत्र का अंतिम दिन है। सरकार का प्रयास रहेगा कि मनरेगा का वैकल्पिक बिल ‘विकसित भारत-गारंटी फॉर रोजगार एंड आजीविका मिशन (ग्रामीण)’ दोनों सदनों में पारित हो जाए, ताकि राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद इसे कानून के तौर पर अधिसूचित किया जा सके। नए बिल को संक्षेप में ‘जी-राम-जी’ कहा जा रहा है। शायद इसीलिए हिंदी और अंग्रेजी के शब्दों की खिचड़ी बनाई गई है। इसे भाजपा की ‘रामवादी राजनीति’ से जोड़ कर भी देखा जा रहा है। यह मानसिकता का संकरापन है। बुनियादी चिंता और सरोकार यह होना चाहिए कि जिस भारतीय को काम का संवैधानिक अधिकार हासिल है, क्या उसे 100 अथवा 125 दिन का रोजगार मुहैया कराया जा रहा है अथवा नहीं? जब 2005 में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी बिल’ तैयार किया गया था, तब भाजपा के वरिष्ठ सांसद कल्याण सिंह की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति में बिल पर व्यापक विमर्श किया गया था। संसदीय समिति ने तत्कालीन मनमोहन सरकार को कई सुझाव भी दिए थे। हमारी सूचना है कि अधिकांश सुझाव मान लिए गए थे। यकीनन वह एक ऐतिहासिक प्रयोग था कि देश में गरीब और बेरोजगार अथवा जिसे काम चाहिए, उस व्यक्ति को साल में कमोबेश 100 दिन का रोजगार, केंद्र सरकार के जरिए, उपलब्ध कराया जाएगा। वह संकल्प और कानूनी प्रावधान अधूरे ही रहे, क्योंकि 2006-07 से लेकर 2024-25 तक औसतन 50.24 दिन का रोजगार ही मुहैया कराया जा सका है। वाकई यह सरकार की नाकामियों का स्मारक भी है, लेकिन इसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही सरकारें शामिल रही हैं। साल 2008 में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रपट सामने आई, तो बदइंतजामी और गहरे भ्रष्टाचार के आरोप सामने आए। करीब 70 फीसदी ब्लॉक में मनरेगा अफसर ही तैनात नहीं थे।

करीब 52 फीसदी पंचायतों में मनरेगा सहायक ही नहीं थे। बंगाल के 19 जिलों में बिना काम ही भुगतान किए गए और फंड के गलत इस्तेमाल किए गए। देश के 19 राज्यों में सर्वे कराए गए, तो अधिकारी और ठेकेदार के मिलीभगत भ्रष्टाचारों का खुलासा हुआ। 2024-25 में, मोदी सरकार के दौरान, 193 करोड़ रुपए का गबन और घोटाला पाया गया। 2025-26 में 23 राज्यों में मनरेगा के तहत या तो काम ही नहीं कराया गया अथवा बजटीय खर्च कम किया गया। बीती 5 दिसंबर को ही राज्यसभा में सरकार ने जानकारी दी थी कि मनरेगा की मद के 9746 करोड़ रुपए बकाया हैं। बजट में मनरेगा के लिए 80,000 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। चूंकि रकम खर्च नहीं की गई, लिहाजा साफ है कि मजदूरी बांटी नहीं गई, क्योंकि काम उपलब्ध ही नहीं कराया गया। यूपीए सरकार के दौरान ही केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय ने कुछ पेशेवरों, पत्रकार आदि, को प्रतिनिधि बना कर बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाकों में भेजा था, ताकि मनरेगा का यथार्थ सामने आ सके। उनमें भी भ्रष्टाचार के कई मामले पकड़ में आए थे।

दरअसल आज मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि यह योजना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम पर थी, तो उनका नाम क्यों हटाया गया? पहले मोदी सरकार ने ही संकेत दिए थे कि संशोधित बिल ‘पूज्य बापू’ के नाम पर होगा, लेकिन जब बिल का मसविदा सार्वजनिक हुआ, तो ‘जी-राम-जी’ सामने आया। बेशक विपक्ष को महात्मा गांधी के नाम पर आंदोलित होना चाहिए, क्योंकि सरकार 2014 से 2025 तक मनरेगा को यथावत चलाती रही है। कोई नाम-परिवर्तन नहीं। कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान सरकार ने 1.11 लाख करोड़ रुपए से अधिक का बजट मनरेगा को आवंटित किया था। मनरेगा ने आम आदमी की बहुत मदद भी की। अब केंद्र 60 फीसदी और राज्य को 40 फीसदी खर्च के लिए बाध्य किया जा रहा है। अधिकांश राज्य भारी कर्ज के तले दबे हैं, लिहाजा काम देने की प्रक्रिया ही प्रभावित होगी। सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर भी ‘जी-राम-जी’ का विरोध किया जा रहा है, क्योंकि उससे काम का अधिकार छिनने का अंदेशा है। बिल को संसदीय समिति को भेजने के आग्रह किए जा रहे हैं। मौजूदा सरकार ने साल में 125 दिन रोजगार का दावा किया है, लेकिन फसलों की बुआई और कटाई के 60 दिनों में ‘कामबंदी’ भी घोषित की है। बेशक नाम कुछ भी रखें, लेकिन काम की व्यवस्था बरकरार रहनी चाहिए।

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