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‘विकसित भारत’ नहीं बन सकता

बेशक जीएसटी सुधार एक अच्छा फैसला है, लेकिन ऐसी रियायतों के जरिए ही भारत 2047 में ‘विकसित राष्ट्र’ नहीं बन सकता। उसके लिए आर्थिक विकास दर कमोबेश 8-10 फीसदी होना अनिवार्य है। फिलहाल तो अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां 6.5 से 6.9 फीसदी के आकलन कर रही हैं। हम अभी बहुत दूर हैं। जीएसटी के अलावा, कानून, श्रम, भूमि, न्याय आदि कई क्षेत्रों में सुधार अनिवार्य और अपेक्षित हैं। भूमि की उपलब्धता और समानता का सुधार भी बेहद जरूरी है। किसान को सिर्फ टै्रक्टर, थ्रेशर, सिंचाई मशीन ही नहीं चाहिए, बल्कि आर्थिक तौर पर समानता भी चाहिए। कमोबेश उसे फसलों की वांछित कीमत तो मिले। वह कर्ज के काले यथार्थ से बाहर निकल सके। ‘किसान सम्मान राशि’ तो ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ है। यह सम्मान नहीं, खैरात है। किसान की फसलें बेहतर दाम पर बिक सकें, सरकार को यह बंदोबस्त करना ही होगा। अलबत्ता ‘विकसित भारत’ एक नारा, एक सपना बनकर रह जाएगा। आम आदमी इस दृष्टि से भी अपनी स्थितियों के आकलन करे। यह भी घोर, कटु सच्चाई है कि आज भी 81 करोड़ से अधिक भारतीय मुफ्त के अनाज के भरोसे हैं। आज भी सरकारी आंकड़ा मानें, तो 15-20 करोड़ भारतीय ‘गरीबी रेखा’ के तले जीने को अभिशप्त हैं। आज भी करीब 85 फीसदी किसान औसत स्तर पर हैं। उनके पास या तो 2-4 हेक्टेयर भूमि है अथवा वे दूसरे की जमीन पर खेती करने को विवश हैं। देश के जीडीपी में कृषि का योगदान बढऩा चाहिए। याद रहे कि कोरोना महामारी के दौरान भी कृषि की विकास दर 3 फीसदी से ज्यादा थी। देश ऐसे आत्मनिर्भर नहीं बन सकता कि वस्तुएं 2, 4, 10 रुपए सस्ती कर दी जाएं। देश का नागरिक कार, घर तभी खरीदने की सोच सकता है, जब उसके पास अतिरिक्त संसाधन होंगे। अभी तो आम आदमी रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है। देश के मात्र 4 फीसदी लोगों की औसत आय 50,000 रुपए माहवार है। हम देश के 1 फीसदी धन्नासेठों की न तो बात कर रहे हैं और न ही हमारे विषय के पात्र मान रहे हैं।

बहरहाल जीएसटी सुधार आम आदमी के लिए बड़ी राहत हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने आत्मनिर्भरता के साथ-साथ ‘स्वदेशी’ का भी आह्वान किया है। ‘स्वदेशी’ आरएसएस का सैद्धांतिक मुद्दा रहा है। ‘स्वदेशी जागरण मंच’ उसका सहयोगी संगठन है। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान भी ‘स्वदेशी’ के नारे खूब गूंजते थे, लेकिन तब भी उन आर्थिक सुधारों को स्वीकार कर उनकी निरंतरता बरकरार रखनी पड़ी, जिनका सूत्रपात पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और उनके वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने किया था। भारत ने भूमंडलीकरण और उदारीकरण को स्वीकार करते हुए शेष विश्व के लिए दरवाजे खोले थे, नतीजतन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में प्रवेश बढ़ाना शुरू किया था। उस दौर के बाद ही भारत की अर्थव्यवस्था में विस्तार हुआ और आज हम चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं। सिर्फ ‘स्वदेशी’ के जरिए ही 146 करोड़ से अधिक की आबादी की जरूरतों को पूरा नहीं किया जा सकता। भारत मैन्यूफैक्चरिंग और आपूर्ति का गढ़ नहीं है। भारत में ‘एप्पल’ और ‘सैमसंग’ सरीखे विदेशी मोबाइल फोन की हम ‘एसेंबलिंग’ करते हैं, लेकिन दावा करते रहे हैं कि हम विश्व में दूसरे सबसे बड़े निर्माता और उत्पादक हैं। विश्व-बाजार में भारतीय ब्रॉन्ड का कौनसा मोबाइल फोन धड़ाधड़ बिक रहा है, जरा प्रधानमंत्री हमें भी बता दें। हकीकत यह है कि हमारे देश में कच्चे माल पर 18 फीसदी जीएसटी है और बने हुए सामान पर अब 5 फीसदी जीएसटी का भुगतान करना पड़ेगा। क्या गजब का विरोधाभास है? भारत में ‘चिप्स’ और एक अच्छी कमीज से लेकर कच्चा माल, कारें और विमान तक ‘विदेशी’ हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के विमान तक ‘विदेशी’ हैं। क्या फ्रांस के ‘राफेल’ और एलन मस्क की ‘टेस्ला’ को स्वदेशी करार दिया जा सकता है? भारत में स्वदेशी का सपना साकार करने के लिए हमारी शीर्ष कंपनियों और लघु, सूक्ष्म, कुटीर उद्योग को ‘अनुसंधान और विकास’ पर बजट लगाना होगा।

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