‘हम भारत के लोग…’

ये भारत के संविधान की प्रस्तावना के आरंभिक शब्द हैं। संविधान और लोकतंत्र देश के नागरिकों को ही संबोधित है। संविधान सभा की बैठकों में संविधान के प्रावधानों और अनुच्छेदों पर व्यापक विमर्श किया गया। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर, 1946 को हुई थी। भारत को स्वतंत्रता मिलना तय हो चुका था। राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जा चुका था, लेकिन विधिवत रूप से भारत का संप्रभु और स्वतंत्र राष्ट्र बनना तब शेष था। उस दौर में हमारे पुरखों ने संविधान पर विमर्श किया। देश की आजादी के बाद भी संविधान सभा की बैठकें जारी रहीं और अंतिम सदस्य-संख्या 299 थी। राष्ट्रपति बनने से पहले डॉ. राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे। सच्चिदानंद सिन्हा उनसे पहले सभा के अस्थायी अध्यक्ष थे। अंतत: 26 नवंबर, 1949 को संविधान को स्वीकृति दी गई और उसे ग्रहण किया गया। हालांकि संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया, लिहाजा उस दिन देश ‘गणतंत्र दिवस’ मनाता है। कांग्रेस ने देश पर 55 साल से अधिक समय तक शासन किया, लेकिन कभी ‘संविधान दिवस’ नहीं मनाया। यह शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में कराई और उसके बाद देश 26 नवंबर को नियमित तौर से ‘संविधान दिवस’ मनाता आ रहा है। बीती 26 नवंबर को पुराने संसद भवन के ‘सेंट्रल हॉल’ (अब संविधान सदन) में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग…’ का पाठ किया। उसी के साथ उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष समेत सभी सांसदों ने यह पाठ दोहरा कर प्रतिज्ञा ली, शपथ ली कि वे संविधान के प्रति प्रतिबद्ध और जवाबदेह रहेंगे। राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय संविधान देश की पहचान का मूल आधार है। यह औपनिवेशिक सोच को छोड़ कर राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाने का मार्गदर्शक दस्तावेज है। यकीनन हमारा संविधान देश के औसत नागरिक से लेकर न्यायपालिका, संसद, सरकार तक सभी अंगों का प्राण है। उनकी दिशा और न्याय है। देश की व्यवस्था संविधान से ही संचालित है। देश की संवैधानिक संस्थाएं भी संविधान की परिधि में हैं।
संविधान में आम नागरिक के मौलिक अधिकार दिए गए हैं, जो बुनियादी और जीवंत लोकतंत्र के प्रतीक हैं। कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल संविधान को खंडित करने या उसके स्थान पर ‘मनु स्मृति’ के प्रावधानों को लागू करने के आरोप लगाते रहे हैं। यह राजनीतिक और चुनावी नेरेटिव हो सकता है, जबकि यथार्थ यह है कि ‘मनु स्मृति’ कोई दस्तावेजी और स्वीकृत संकलन ही नहीं है। वह संविधान का विकल्प कैसे बनाया जा सकता है? भाजपा-आरएसएस को इतना असंवैधानिक और निरंकुश कौन होने देगा? संविधान पर घातक प्रहार, आघात तब किया गया था, जब 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी। निश्चित तौर पर वह कालिमा का दौर था। बिना अपराध के नेताओं, पत्रकारों, कलाकारों, कवियों, समाजसेवियों आदि को जेलों में ठूंस दिया गया था। बहरहाल हम आज उस दौर को भी भूल जाना चाहते हैं, लेकिन देश को यह खुलासा करना चाहते हैं कि संविधान के 39वें और 42वें अनुच्छेद में ऐसे संशोधन किए गए, जिनसे देश तानाशाही की ओर जा सकता था! संशोधन किया गया कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, स्पीकर के चुनाव संबंधी विवाद अदालत के दायरे से बाहर होंगे। प्रधानमंत्री से कोई सवाल नहीं किया जाएगा। न्यायपालिका की स्वतंत्रता समाप्त करने की कोशिश की गई। आपातकाल की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकेगी। संविधान की प्रस्तावना में दो नए शब्द जोड़ दिए गए-सेक्युलर और सोशलिस्ट। ये शब्द आज भी मौजूद हैं। अलबत्ता जो एकाधिकारवादी संशोधन थे, उन्हें बाद की जनता पार्टी सरकार के दौरान पुन: संशोधित कर सुधारा गया। इस तरह संविधान बच सका।




