दीनदयाल उपाध्याय का जीवन दर्शन और राजनीति

चेतना से परे व्यक्ति पशु समान है। क्योंकि भौतिक जरूरतें तो आदमी और पशु की समान ही हैं। चेतना ही मनुष्य को पशु से अलग करती है। दीनदयाल उपाध्याय मनुष्य को खंड-खंड करके उसके विकास के निष्कर्ष नहीं निकालते, बल्कि उसे एकात्म मान कर उसकी चिंता करते हैं। पदार्थ को खंडित किया जा सकता है, चेतना को नहीं। यह विचार एकात्म मानव दर्शन का मूलाधार है। दीनदयाल उपाध्याय राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर देश की राष्ट्रवादी शक्तियों का एक मंच तैयार करना चाहते थे…
दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक थे। 1950 में जब भारतीय जनसंघ का गठन हुआ तो वे जनसंघ का कार्य देखने लगे। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था यदि मुझे दीनदयाल उपाध्याय जैसे चार कार्यकर्ता मिल जाएं, तो मैं देश की राजनीति बदल सकता हूं। शायद यही कारण था कि जब जनसंघ की स्थापना के दो वर्ष के भीतर ही डा. मुखर्जी की श्रीनगर की जेल में संदिग्ध हालात में मृत्यु हो गई तो बहुत से लोगों को लगता था कि अब जनसंघ चल नहीं पाएगा। दीनदयाल ने इस आशंका को निर्मूल सिद्ध किया और जनसंघ प्रगति पथ पर बढऩे लगा। उपाध्याय जी जोडऩे की कला में माहिर थे। वे भारत की सांस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित विद्वानों की खोज में निरंतर लगे रहते थे। 1962 में चीनी आक्रमण से आहत और आक्रमण से पूर्व पंडित नेहरु को चीन की कुटिल मानसिकता से सावधान करते रहने वाले आचार्य रघुवीर ने नेहरु की अव्यावहारिकता चीन नीति से दुखी होकर कांग्रेस को अलविदा कह दी तो उनको भारतीय जनसंघ से जोडऩे में उपाध्याय की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका थी (1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया तो आचार्य रघुवीर की आशंका सही साबित हुई)। इतना ही नहीं उपाध्याय जी ने आचार्य रघुवीर को जनसंघ का अखिल भारतीय अध्यक्ष भी बनाया था।
भारतीय जनसंघ के 1962 में हुए दसवें अधिवेशन में रघुवीर जी का दिया गया उनका भाषण, आज भी भाजपा का आधारभूत दस्तावेज माना जाता है। 1962 तक आते- आते भारतीय जनसंघ की अपनी विशिष्ट वैचारिक पहचान बनने लगी थी। अभी तक देश में बहस इस बात को लेकर होती रही थी कि भारत के लिए कौन सी विदेशी विचारधारा श्रेयस्कर है। साम्यवाद या पूंजीवाद। भारतीय राजनीति में अपना स्थान स्थापित करने के बाद जनसंघ ने यह बहस चला दी थी कि भारत के लिए भारतीय जीवन दर्शन से निकली वैचारिक गंगा ही श्रेयस्कर हो सकती है। इस हेतु 11-15 अगस्त, 1964 को ग्वालियर में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्यों का एक शिविर आयोजित किया गया। इसमें भारतीय जनसंघ के वैचारिक धरातल को लेकर एक प्रस्ताव पारित किया गया। यह प्रस्ताव भारतीय जनसंघ के विचार दर्शन की आधार भित्ति बना और इसी को आधार बना कर पार्टी ने 23-24 जनवरी, 1965 के अपने विजयवाड़ा अधिवेशन में सिद्धांत और नीति दस्तावेज तैयार किया। इस प्रस्ताव को आधार बना कर दीनदयाल उपाध्याय ने विजयवाड़ा अधिवेशन के तीन मास बाद 22-25 अप्रैल, 1965 को मुंबई में जनसंघ कार्यकर्ताओं के एक शिविर में चार व्याख्यान दिए थे। उपाध्याय के ये चार व्याख्यान बौद्धिक जगत में एकात्म मानववाद के नाम से प्रसिद्ध हुए। लेकिन बाद के वर्षों में जनसंघ के भीतर ही बहस शुरू हुई कि किसी भी विचार को ‘वाद’ बना कर उसे जड़ता की हालत में कैसे रहने दिया जा सकता है? कोई भी विचार, प्रयोग या सत्य अंतिम तो नहीं हो सकता। वाद, विचार या प्रयोग के आगे दीवार बन कर उसके विकास का रास्ता अवरुद्ध कर देता है। वाद शब्द किसी भी विचार सारिणी के आगे दीवार बन जाता है और चिंतन की निरंतरता को अवरुद्ध करता है। कोई भी वक्तवय, ऐसे ही लिखा जा सकता है कि अभी तक जितना पता चला है, उसके बाद रास्ता खुला रखना होगा ताकि भावी पीढिय़ां उसमें कुछ अपना योगदान पा सके। शाश्वत तथ्यों को छोड़ कर कुछ भी अंतिम नहीं है। इसमें तुरंत ‘एकात्म मानववाद’ को ‘एकात्म मानवदर्शन’ का नाम दे दिया गया। वाद पश्चिम का रास्ता है, दर्शन भारत का रास्ता है।
दीनदयाल का रास्ता विचार यात्रा का यही सनातन रास्ता था। अर्थनीति में प्रचलित दो विचार धाराओं मसलन पूंजीवाद और साम्यवाद/माक्र्सवाद से बेहतर एकात्म मानव दर्शन हो सकता है, विश्वविद्यालयों में इस पर भी चर्चा प्रारंभ हो गई। वैसे भी दीनदयाल उपाध्याय पूंजीवाद और माक्र्सवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे। उनका मानना था कि इन दोनों चिंतनों में कोई मौलिक अंतर नहीं है। मोटे तौर पर दोनों दर्शन मनुष्य को एक आर्थिक प्राणी मान कर चलते हैं और मानते हैं कि यदि उसकी भौतिक आवश्यकताएं पूरी हो जाएं तो वह सुखी हो सकता है। दोनों दर्शनों में केवल एक ही मुद्दे को लेकर विवाद है कि संपत्ति पर या उत्पादन के साधनों पर नियंत्रण किसका हो? व्यक्ति का या राज्य का? साम्यवाद राज्य का नियंत्रण चाहता है और पूंजीवाद व्यक्ति का नियंत्रण चाहता है। इसलिए अपने मौलिक रूप में ये दोनों विचारधाराएं भौतिकवादी हैं। दोनों मनुष्य को पदार्थ या मैटर के रूप में ही देखती हैं। लेकिन मूल प्रश्न तो दूसरा है। क्या दुनिया भर में मनुष्य का व्यवहार सचमुच भौतिकता (मैटर) से ही संचालित होता है? पदार्थ या मैटर तो जड़ है। वह मनुष्य को कैसे संचालित कर सकता है? भारत में यह निरंतर बहस का विषय रहा है और आज भी है। यही कारण है कि यहां, इस विषय को लेकर निकाले गए निष्कर्षों की भरमार है। षट् दर्शन को तो दुनिया ही जानती है। अन्य भी अनेक दर्शन हैं। ऐसा नहीं कि भारत में भौतिकवाद दर्शन नहीं है। लोकायत दर्शन का आधार भौतिक या पदार्थ ही है। बहुत से लोग तो यह भी मानते हैं कि कार्ल माक्र्स ने अपने भौतिकवाद दर्शन की समझ लोकायत दर्शन से ही विकसित की। पदार्थ के साथ चेतना या माइंड का संयोग होता है तभी मानव यात्रा शुरू होती है। इसे प्रकृति और पुरुष भी कहा जाता है। प्रकृति जड़ है और पुरुष चेतनता है। दोनों के संयोग का प्रतिफल ही मानव की सनातन यात्रा है। इसे शिव-शक्ति भी कहा जाता है।
पश्चिम में यह बहस चलती रहती है कि दोनों में से प्रमुख कौन है? कार्ल माक्र्स ने तो यह कह कर झगड़ा खत्म किया कि पदार्थ के बिना चेतना का अस्तित्व ही नहीं है। लेकिन भारत में यह बहस कभी बंद नहीं हुई। दोनों परस्पर आश्रित हैं। यह निष्कर्ष बहुत पुराना है। चेतना से परे व्यक्ति पशु समान है। क्योंकि भौतिक जरूरतें तो आदमी और पशु की समान ही हैं। चेतना ही मनुष्य को पशु से अलग करती है। दीनदयाल उपाध्याय मनुष्य को खंड-खंड करके उसके विकास के निष्कर्ष नहीं निकालते, बल्कि उसे एकात्म मान कर उसकी चिंता करते हैं। पदार्थ को खंडित किया जा सकता है, चेतना को नहीं। यह विचार एकात्म मानव दर्शन का मूलाधार है। दीनदयाल उपाध्याय राम मनोहर लोहिया के साथ मिलकर देश की राष्ट्रवादी शक्तियों का एक मंच तैयार करना चाहते थे। परंतु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि 1967 में जनसंघ के अखिल भारतीय अधिवेशन के बाद उनकी भी रहस्य हालात में मृत्यु या हत्या कर दी गई। इसी अधिवेशन में वे जनसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे। इसे दुर्योग ही कहना चाहिए कि न तो आज तक डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्या से पर्दा उठ पाया और न ही दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से। लेकिन दीनदयाल ने राष्ट्रवादी शक्तियों के लिए जो आधारभूमि तैयार कर दी थी, उसी का सुफल था कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक राष्ट्रवादी शक्तियां देश की राजनीति की धुरी में स्थापित हो गईं।
कुलदीप चंद अग्निहोत्री




