संपादकीय

‘एसआईआर’ पर विवाद

लोकतंत्र से बड़ा और महत्वपूर्ण न तो चुनाव आयोग है और न ही मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण है। यदि चुनाव आयोग के इस शुद्धिकरण अभियान पर कुछ राज्य सरकारों की आपत्तियां और सवाल हैं, तो आयोग पूरी संवेदनशीलता के साथ सुने और समन्वयवादी कार्रवाई करे। चुनाव आयोग अपनी संवैधानिकता के खोल में सिमटा, खामोश नहीं बैठा रह सकता। वह संसद और राष्ट्र के प्रति पूरी तरह जवाबदेह है। सरकार बहाने बनाती रही है और बीते संसद सत्र के दौरान 100 से अधिक नोटिसों के बावजूद चुनाव आयोग पर चर्चा कराने से कन्नी काटती रही है। चूंकि लोकतंत्र में औसत मतदाता, यानी देश का नागरिक, ही सर्वोच्च है। वह मतदाता ही संसद और सरकार को चुनता है। सरकार संसद के प्रति जवाबदेह है। सरकार ही चुनाव आयुक्तों का चयन करती है। इन तमाम समीकरणों के मद्देनजर संसद में चुनाव आयोग की भूमिका और मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर लंबी चर्चा होनी चाहिए। संसद का शीत सत्र 1 दिसंबर से शुरू हो रहा है। दरअसल यह देश एक भी नागरिक की मौत या आत्महत्या की घटना को बर्दाश्त नहीं कर सकता। चुनाव आयोग यह मुगालता भी न पाले कि राज्यों में फर्जी और घुसपैठियों के वोट से ही सरकारें बनी हुई हैं। यह राजनीति है और चुनाव आयोग को ऐसी राजनीति में संलिप्त नहीं होना चाहिए। वह देश की संवैधानिक संस्था है। देश उसका बहुत सम्मान करता है, भरोसा करता है। लेकिन सिर्फ चुनाव आयोग ही सच्चा और सही है, समूचा विपक्ष गलत और दुष्प्रचारी है। विपक्ष भी लोकतंत्र में निर्वाचित पक्ष है।

बेशक एसआईआर एक प्रशासनिक और विसंगतियों को दुरुस्त करने की अनिवार्य प्रक्रिया है, लेकिन वह मौत या आत्महत्या की प्रक्रिया साबित नहीं होनी चाहिए। हमें क्या, पूरे देश को यह स्वीकार्य नहीं होगा कि बंगाल, तमिलनाडु, केरल, राजस्थान, मप्र आदि राज्यों में ‘बूथ लेवल ऑफिसर’ (बीएलओ) आत्महत्याएं करें अथवा काम के अत्यधिक दबाव और तनाव के कारण अकाल मौत के शिकार हों और चुनाव आयोग एसआईआर के आंकड़े ही गिनता रहे। देश में जनगणना की प्रक्रिया भी बाधित हुई है, तो एसआईआर के लिए चुनाव आयोग इतनी हड़बड़ी, जल्दबाजी में क्यों है कि एक ही माह में करीब 51 करोड़ मतदाताओं के रिकॉर्ड विशुद्ध करने पर आमादा है? जब 20 साल या अधिक अवधि तक मतदाता सूचियों का शुद्धिकरण नहीं होता, तो क्या देश में चुनाव फर्जी या गड़बड़ वाली सूचियों के आधार पर किए गए? यह भी असंवैधानिक है। दरअसल शुद्धिकरण की एक निश्चित समय-सीमा होनी चाहिए। अब 12 राज्यों और संघशासित क्षेत्रों में एसआईआर का अभियान जारी है। उन राज्यों में भी पुनरीक्षण कराया जा रहा है, जहां चुनाव 2027 या 2028 में होने हैं। कमोबेश वहां तो तनावरहित तरीके से यह अभियान चलाया जा सकता है। यदि एक माह में नहीं, तो छह माह में मतदाता सूचियों का शुद्धिकरण हो जाएगा, तो कौनसा पहाड़ टूट पड़ेगा? कौनसा संवैधानिक पेंच फंस जाएगा? चुनाव आयोग इस देश का प्रहरी है, संरक्षक भी है, लोकतंत्र का संचालक भी है, लेकिन वह तानाशाह नहीं हो सकता। वह मनमर्जी या किसी की मिलीभगत, सांठगांठ के मद्देनजर मताधिकार छीन नहीं सकता। वह मौलिक अधिकार संविधान देता है। चुनाव आयोग को भी उसी संविधान ने छाया दे रखी है। यदि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुख्य चुनाव आयुक्त ज्ञानेश कुमार गुप्ता को पत्र लिख कर पुनरीक्षण की प्रक्रिया को अमानवीय, खतरनाक, थोपी जाने वाली प्रक्रिया करार दिया है, तो उसके मायने ये नहीं हैं कि वह देश-विरोधी, चुनाव आयोग-विरोधी हैं। केरल और तमिलनाडु सरकारों के भी सवाल हैं। उन्होंने सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी है। दरअसल ज्ञानेश कुमार को सार्वजनिक रूप से, बिंदुवार, सभी सवालों के जवाब देने चाहिए।

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