आतंक का कहर पहलगाम से ऑस्ट्रेलिया तक

आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन जब धर्म का नाम लेकर बार-बार निर्दोषों का कत्ल किया जाए, तो उस वैचारिक जड़ पर प्रहार अनिवार्य हो जाता है। भारत आज दुनिया से केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि स्पष्टता, साहस और कार्रवाई की अपेक्षा करता है…
दुनिया के मानचित्र पर जब-जब निर्दोष नागरिकों का खून बहता है, तब-तब एक ही प्रश्न उठता है, आखिर आतंकवाद का यह सिलसिला कब थमेगा? भारत के कश्मीर स्थित पहलगाम से ऑस्ट्रेलिया के सिडनी शहर के बोंडी बीच जैसे सुरक्षित माने जाने वाले पर्यटन स्थल तक, हिंसा का पैटर्न एक जैसा है, भीड़, निहत्थे लोग और अंधाधुंध हमला। न कोई युद्धभूमि, न कोई सैन्य ठिकाना, फिर भी गोलियां चलती हैं, लाशें गिरती हैं और मानवता शर्मसार होती है। बोंडी बीच की घटना ने पश्चिमी दुनिया को झकझोर दिया है, तो पहलगाम घटनाक्रम भारत के लिए कोई नई त्रासदी नहीं थी। भारत दशकों से इस आग में जल रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि जो दर्द भारत लंबे समय से झेल रहा था, उसकी आंच अब वैश्विक चौखटों तक पहुंच चुकी है। अब मौका है कि, दुनिया को आत्ममंथन करना चाहिए और भावनात्मक संवेदना से आगे बढक़र आतंकवाद की पोषक सरकारों से ठोस सवाल पूछने चाहिए। आज सबसे असहज करने वाला और विवादास्पद प्रश्न यही है कि अधिकांश अंतरराष्ट्रीय आतंकी घटनाओं में कट्टर इस्लामिक विचारधारा से प्रेरित तत्वों की संलिप्तता क्यों बार-बार सामने आती है।
यह सच है कि इस्लाम एक वैश्विक धर्म है और उसके अनुयायियों की अधिकांश विशाल आबादी शांति से जीवन जीती है। यह भी उतना ही सच है कि दुनिया में आतंकवाद का शिकार स्वयं मुस्लिम समाज भी है, अफगानिस्तान, इराक, सीरिया और अफ्रीका के कई देश इसकी गवाही देते हैं। लेकिन इन तथ्यों के बावजूद इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि, अल कायदा, आईएसआईएस, लश्कर ए तैयबा, जैश ए मोहम्मद जैसे संगठनों ने धर्म की आड़ में हिंसा को वैध ठहराने की जो कोशिशें की हैं, यहीं से आतंकवाद रूपी वैश्विक समस्या जन्म लेती है। आज आतंकवाद एक वैश्विक समस्या बन चुकी है क्योंकि यह किसी एक देश तक सीमित नहीं है, बल्कि दुनिया भर के सभी देशों को प्रभावित करती है। इस खतरनाक समस्या के समाधान के लिए विश्व के सभी देशों को एकजुट होकर बहुआयामी रणनीति अपनाने की जरूरत है, जिसमें सुरक्षा, संचार, गरीबी उन्मूलन और अन्याय का समाधान शामिल हो। भारत दशकों से आतंकवाद झेल रहा है। कश्मीर में पहलगाम, उड़ी, पुलवामा और मुंबई जैसे हमले केवल सुरक्षा चूक नहीं, बल्कि सीमा-पार प्रायोजित आतंकवाद की परिणति रहे हैं। भारत ने बार-बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह प्रश्न उठाया है कि जब आतंकवादी संगठनों की जड़ें और प्रशिक्षण शिविर स्पष्ट रूप से कुछ देशों और कट्टर नेटवर्कों से जुड़े हों, तो वैश्विक समुदाय कठोर कार्रवाई करने से क्यों बचता है? पहलगाम जैसे पर्यटन स्थल पर हमला यह दर्शाता है कि आतंकवादियों का उद्देश्य सैन्य जीत नहीं, बल्कि डर का वातावरण बनाना है, ताकि भारत की अर्थव्यवस्था, पर्यटन और सामाजिक सद्भाव को नुकसान पहुंचे। कई अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों और जांचों में यह बात सामने आती रही है कि दक्षिण एशिया में सक्रिय अनेक आतंकी संगठनों को पाकिस्तान स्थित कट्टरपंथी नेटवर्कों से वैचारिक या लॉजिस्टिक समर्थन मिलता है। यही कारण है कि भारत बार-बार यह कहता रहा है कि आतंकवाद को ‘अच्छा’ और ‘बुरा’ में बांटना अंतत: पूरी दुनिया के लिए घातक सिद्ध होगा। दुर्भाग्यवश, जब तक यह आग दूसरों के घर में लगी रहती है, तब तक वैश्विक शक्तियां कूटनीतिक औपचारिकताओं से आगे नहीं बढ़ती हैं। बोंडी बीच जैसी घटनाएं इसी उदासीनता का परिणाम हैं। आज जो कट्टरता दक्षिण एशिया में पन रही है, वह वैश्वीकरण के दौर में सीमाओं से बंधी नहीं रह सकती। इंटरनेट, फंडिंग नेटवर्क और वैचारिक प्रचार ने आतंकवाद को अंतरराष्ट्रीय बना दिया है। ऐसे में यह मान लेना कि समस्या ‘किसी और की’ है, आत्मघाती भ्रम के अलावा कुछ नहीं है। यहां एक बात स्पष्ट करनी होगी, किसी पूरे समुदाय को दोषी ठहराना न तो समाधान है, न ही न्याय। लेकिन यह सवाल पूछना पूरी तरह से जायज है कि कट्टर इस्लामी आतंकवाद के विरुद्ध मुस्लिम-बहुल देशों और समाजों में वैचारिक स्तर पर पर्याप्त प्रतिरोध क्यों नहीं खड़ा हो पाया है? क्यों आतंकवाद की स्पष्ट और एकस्वर से निंदा अक्सर राजनीतिक शर्तों में उलझकर रह जाती है? भारत ने आतंकवाद के विरुद्ध अपना रुख स्पष्ट रखा है। सर्जिकल स्ट्राइक और ऑपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाइयों ने यह स्पष्ट संकेत दिए हैं कि, भारत अब केवल बयान नहीं देता, बल्कि निर्णायक कार्रवाई भी करता है।
यह कार्रवाई किसी देश या नागरिक आबादी के विरुद्ध न होकर विशिष्ट आतंकी ढांचों के विरुद्ध होती है। अब भारत ने आतंकवाद के विरुद्ध जीरो टॉलरेंस की नीति अपना ली है। भारत, संयुक्त राष्ट्र में सीसीआईटी जैसे प्रस्तावों के माध्यम से लगातार यह मांग करता रहा है कि आतंकवाद की एक सार्वभौमिक परिभाषा तय हो और उसके प्रायोजकों को जवाबदेह ठहराया जाए। 1996 में, भारत ने ‘अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक अभिसमय का प्रस्ताव’ संयुक्त राष्ट्र महासभा में रखा था, जिसका उद्देश्य सभी प्रकार के अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद को अपराध घोषित करना और आतंकवादियों, उनके वित्तपोषकों तथा समर्थकों को धन, हथियार और सुरक्षित आश्रयों से वंचित करना था। हैरानी वाली बात है कि 29 सालों के बाद भी आतंकवाद की परिभाषा पर सदस्य देशों के बीच असहमति के कारण यह प्रस्ताव अभी तक पारित नहीं हो सका है। केवल संवेदनाएं व्यक्त करने से न बोंडी बीच सुरक्षित होगा, न पहलगाम। निष्कर्षत:, बोंडी बीच से पहलगाम तक फैला यह खून का नक्शा एक चेतावनी है। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, लेकिन जब धर्म का नाम लेकर बार-बार निर्दोषों का कत्ल किया जाए, तो उस वैचारिक जड़ पर प्रहार अनिवार्य हो जाता है। भारत आज दुनिया से केवल सहानुभूति नहीं, बल्कि स्पष्टता, साहस और कार्रवाई की अपेक्षा करता है। क्योंकि आतंकवाद यदि आज भारत का दर्द है, तो कल वह पूरी दुनिया का नासूर भी बन सकता है।
अनुज आचार्य




