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वक्फ पर ‘अंतरिम निष्कर्ष’

वक्फ संशोधन कानून, 2025 पर सर्वोच्च अदालत का सीमित हस्तक्षेप बौद्धिक न्यायिक सोच का एक अच्छा उदाहरण है। अदालत ने कानून पर रोक लगाने से साफ इंकार कर दिया, क्योंकि उसका कोई संवैधानिक आधार नहीं था, लेकिन कानून के कुछ विवादित प्रावधानों पर रोक जरूर लगाई है, क्योंकि वे संविधान की हदें लांघते नजर आए और धार्मिक स्वतंत्रता छिनती भी लगी। शीर्ष अदालत ने व्यक्ति के संपत्ति अधिकारों का फैसला करने का अधिकार कलेक्टर को नहीं दिया, लिहाजा कानून में कलेक्टर की भूमिका को सीमित कर दिया गया। सबसे महत्वपूर्ण न्यायिक समीक्षा यह रही कि अदालत ने 5 साल से मुस्लिम होने की शर्त पर रोक लगा दी। न्यायिक पीठ ने कहा कि जब तक राज्य सरकारें इस संदर्भ में कोई नियम-कानून नहीं बना लेतीं कि कोई व्यक्ति मुस्लिम है या नहीं, तब तक तत्काल प्रभाव से इस प्रावधान पर रोक लगाई जाती है। शीर्ष अदालत ने यह भी तय कर दिया कि राज्य के वक्फ बोर्ड परिषद में अधिकतम 3 और केंद्रीय परिषद में अधिकतम 4 गैर-मुस्लिम सदस्य होंगे। वक्फ बोर्ड का सीईओ भी यथासंभव मुसलमान होना चाहिए। सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि वक्फ संपत्तियों के पंजीकरण का प्रावधान 1995 और 2013 के कानूनों में भी था और अब फिर से लागू किया गया है। इस पर रोक नहीं लगाई जा सकती। वक्फ ट्रिब्यूनल के फैसले के बिना किसी संपत्ति को वक्फ घोषित नहीं किया जा सकता और न ही राजस्व रिकॉर्ड में कोई बदलाव किया जा सकता है। ऐसी न्यायिक समीक्षा के साथ प्रधान न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस जॉर्ज मसीह की पीठ ने वक्फ संशोधन कानून पर अस्थायी और शुरुआती विचार दिया है। यह सर्वोच्च अदालत का अंतरिम फैसला है। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस गवई के अनुसार, यह अंतिम निष्कर्ष नहीं है। फिलहाल हमने इतना ही देखा है कि क्या कानून अथवा उसकी किसी धारा पर तुरंत रोक लगाई जाए अथवा नहीं? बहरहाल अंतरिम निष्कर्ष से ही सत्ता और विपक्ष दोनों संतुष्ट हैं और अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहे हैं, लेकिन जिन आधारों पर 20 से अधिक याचिकाएं दाखिल की गई थीं, उन पर शिकायतकर्ताओं को हताशा मिली है। यह न्यायिक निष्कर्ष किसी के भी गाल पर तमाचा नहीं है, बल्कि अदालत की सोच रही है कि देश में अमन-चैन, भाईचारा बना रहे। सांप्रदायिक तनाव के हालात न बनें। यह फैसला संसदीय लोकतंत्र के हित में है।

संसद के फैसले पर ही अदालत ने बुनियादी मुहर लगाई है। संसद की सर्वोच्चता को लांघा नहीं जा सकता, अदालत ने अपने निष्कर्ष में परोक्ष रूप से यह माना भी है। कानून के विपक्षियों की दलीलें थीं कि वक्फ संशोधन कानून से संविधान के अनुच्छेदों-14, 15, 25, 26, 29, 30 और 300-ए का उल्लंघन होगा, लिहाजा यह कानून संवैधानिक कैसे हो सकता है? न्यायिक पीठ ने इन दलीलों को खारिज करते हुए संशोधित कानून को बरकरार रखा है। विपक्ष ने यहां तक आरोप लगाए कि सरकार मुसलमानों की मस्जिदें, ईदगाह, उनके कब्रिस्तानों की जमीनों पर कब्जा करके अपने ‘मित्र उद्योगपतियों’ को सौंपने की मंशा रखती है। अदालत में इन आरोपों का क्या हुआ? अब भी अदालत के सामने यह मामला है। आगे जब सुनवाई शुरू होगी, तो विपक्ष के वकील दलीलें दे सकते हैं, क्योंकि देश जानना चाहता है कि इन सांप्रदायिक आरोपों की बुनियाद क्या थी। मुस्लिम नेताओं, मौलवियों, मुफ्तियों, इमामों आदि ने नौजवान मुसलमानों के लिए बेहद उत्तेजक आह्वान किए कि वे राजधानी दिल्ली में लामबंद हों और सरकार को अपनी ताकत दिखाएं। क्या वाकई ऐसी नौबत आ गई थी? अहम सवाल है कि भारत में 8.72 लाख से अधिक वक्फ संपत्तियां हैं, जो दुनिया में सर्वाधिक हैं, फिर भी औसत मुसलमान गरीब, असहाय, अनपढ़ क्यों है? यह सवाल तो ‘सच्चर कमेटी’ की रपट में भी उठाया गया था। सवाल यह भी है कि वक्फ ट्रिब्यूनल में आज भी 14,417 विवादित केस क्यों लंबित हैं? न्यायिक पीठ ने ‘वक्फ बाय यूजर’ के स्थान पर भविष्य में ‘वक्फ बाय ऑनर’ का फैसला क्यों दिया है? दरअसल वक्फ की बेशुमार संपत्तियों पर जो अवैध कब्जे हैं, जो धांधलियां निहित हैं, जो पारदर्शिता और प्रबंधन नहीं है, क्या उन्हें इसलिए छोड़ दिया जाए कि वे मुसलमानों से जुड़ी हैं। सरकार के दायित्व सर्वधर्मा होते हैं। विसंगतियां समाप्त होनी चाहिए, भ्रष्टाचार का खात्मा किया जाना चाहिए।

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